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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-७९ ६६ होता है। जिस प्रवृत्ति से पुण्यबंध होता है और कर्मों का नाश होता है, वह प्रवृत्ति 'धर्म' है। __ जीवात्मा ने जो पुण्यकर्म बाँधा हुआ होता है, यानी धर्म से जो पुण्यकर्म उपार्जित हुआ हो पूर्व जन्मों में, उन पुण्यकर्म के उदय से मनुष्य का अभ्युदय होता है। उसको धन्य-धान्य, आरोग्य, अच्छा परिवार, यश-कीर्ति वगैरह वैषयिक सुखों की प्राप्ति होती है। इस वर्तमान जीवन में जीवात्मा जो पुण्यकर्म का उपार्जन करता है, उससे जो पुण्यकर्म बाँधता है, वह पुण्यकर्म आनेवाले भवों में जब उदय में आयेगा तब अभ्युदय होगा। जब सभी कर्मों का क्षय होगा तब निःश्रेयस-मोक्ष की प्राप्ति होगी। सभी कर्मों का क्षय होता है तपश्चर्या से | समभाव के साथ की हुई तपश्चर्या कर्मों का नाश करती है। न होना चाहिए कोई लोभ, न होनी चाहिए कोई लालच । 'मैं तप करूँगा तो मुझे घर में, समाज में मान-सम्मान मिलेगा, मुझे धन-संपत्ति मिलेगी, मुझे पुत्रप्राप्ति होगी...।' ऐसी-वैसी लालच से किया हुआ तप कर्मक्षय नहीं करता है। तपश्चर्या के व्यापक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। बाह्य और आभ्यंतर तपश्चर्या का ज्ञान प्राप्त करें। बाह्य तप करते करते आन्तर तपश्चर्या की ओर जाना चाहिए। स्वाध्याय, ध्यान, विनय, कायोत्सर्ग, प्रायश्चित्त वगैरह आन्तर तपश्चर्या है। कर्मक्षय में यह आन्तर तपश्चर्या असाधारण कारण है। गृहस्थ जीवन में यह बाह्य-आन्तर तपश्चर्या की उचित आराधना करनी चाहिए। सभा में से : 'उचित आराधना' से क्या मतलब है? महाराजश्री : अर्थ-पुरुषार्थ और काम-पुरुषार्थ को हानि न पहँचे, इस प्रकार तपश्चर्या करने की है। गृहस्थ जीवन में अर्थ-पुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ विशेष महत्त्व रखते हैं। 'अर्थ' का अर्थ : ‘यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः'। टीकाकार आचार्यश्री ने अर्थ की कैसी व्यापक परिभाषा दी है! जिससे सभी प्रयोजनों की सिद्धि होती है-वह अर्थ है। अर्थ यानी स्थावर और जंगम संपत्ति | संपत्ति कहें, वैभव कहें, रुपये कहें, जमीन कहें, मकान कहें... सभी 'अर्थ' है। संपत्ति से सभी कार्य सिद्ध हो सकते हैं। मनुष्य का समग्र गृहस्थोचित व्यवहार को नहीं निभा सकता है। इसलिए मनुष्य को अर्थ-प्राप्ति के प्रति दुर्लक्ष नहीं करना चाहिए | जीवन-व्यवहार सुचारू रूप से चलता रहे, उतनी For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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