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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५ प्रवचन-७९ और अतिरेक से वही मनुष्य बच सकता है, जो संतुलित बुद्धिवाला होता है, जो भावावेश में बह जानेवाला नहीं होता है। इस विषय की चर्चा बाद में करूँगा, पहले इन तीन पुरुषार्थ की परिभाषाएँ बताता हूँ। इस ग्रन्थ के टीकाकार आचार्यश्री ने बहुत ही सुंदर परिभाषाएँ बताई हैं। 'धर्म' की परिभाषा : यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। जिससे अभ्युदय-सिद्धि प्राप्त होती है और जिससे निःश्रेयस की प्राप्ति होती है-उसका नाम है धर्म | इस ग्रन्थ के प्रारंभ में ही ग्रन्थकार आचार्यदेव ने कहा है : ‘धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः कामीनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य पारम्पर्येण साधकः ।।' इस श्लोक में भी, धर्म अभ्युदय और निःश्रेयस प्रदान करता है, यही बात कही गई है। अर्थ और काम अभ्युदय है। अपवर्ग यानी मोक्ष निःश्रेयस है। धर्म क्या है? : मन-वचन-काया का ऐसा पुरुषार्थ धर्म है कि जिससे पुण्यकर्म बँधते हैं और पापकर्म नष्ट होते हैं। मन के कुछ विचार ऐसे होते हैं कि जिनसे पुण्यकर्म बँधता है, कुछ ऐसे विचार होते हैं कि जिनसे पापकर्म बँधता है और कुछ विचार ऐसे होते हैं कि जिनसे कर्मों का नाश होता है। तो, जिन-जिन विचारों से पुण्यकर्म बँधता है और जिन-जिन विचारों से कर्मों का नाश होता है - वे सारे विचार 'धर्म' हैं। कुछ वाणी-व्यवहार ऐसा होता है जिससे पुण्यकर्म बँधता है, कुछ वाणीव्यवहार ऐसा होता है कि जिससे पापकर्म बँधता है और कुछ वाणी-व्यवहार ऐसा होता है कि जिससे कर्मों का नाश होता है। तो, जिन-जिन वाणीव्यवहारों से पुण्यबंध होता है और कर्मों का नाश होता है-वह सारा वाणीव्यवहार 'धर्म' कहलायेगा। ___ पाँच इन्द्रियों की-शरीर की कुछ प्रवृत्तियाँ ऐसी होती है कि जिससे पुण्यकर्म बँधता है, कुछ प्रवृत्तियाँ ऐसी होती है कि जिससे पापकर्म बँधता है और कुछ प्रवृत्तियाँ ऐसी होती है (कायस्थिरता) कि जिससे कर्मों का नाश For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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