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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ प्रवचन-७७ कैसी सुन्दर निष्पाप-जीवन जीने की पद्धति है! दुनिया में कहीं पर भी...किसी भी दूसरे धर्म में, ऐसी जीवन-पद्धति नहीं बताई गई है। निष्पाप जीवन जीनेवाले महापुरुषों की सेवा करने का सौभाग्य, पुण्यशाली जीव को ही प्राप्त होता है। निष्पाप जीवन के साथ अपूर्व ज्ञानोपासना जो करते रहते हैं, धर्मग्रन्थों का अध्ययन, चिन्तन, परिशीलन करते हुए जो अपने मन को निर्मल और सात्त्विक बनाते हैं। अपनी जीवन-यात्रा को निराकुल और प्रसन्नतापूर्ण बनाते हैं। ऐसे ज्ञानी पुरुषों का परिचय करने से मनुष्य अपने को मोहान्धकार से बाहर निकलता है। सच्ची जीवनदृष्टि पाता है, आत्मविशुद्धि की आराधना में अग्रसर होता है। _ऐसे व्रतधारी ज्ञानवान् महापुरुषों का संयोग महान् पुण्य के उदय से होता है। संयोग का लाभ उठाना चाहिए | मांडवगढ़ के महामंत्री पेथड़शाह, जब वे मांडवगढ़ में आये नहीं थे, महामंत्री-पद मिला नहीं था, और जब उनके पिता देदाशाह का स्वर्गवास हो गया था, पेथड़शाह निर्धन अवस्था में आ गये थे... उस समय की एक घटना सुनाता हूँ। पेथड़शाह की पूर्वावस्था : विक्रम की तेरहवीं शताब्दी की यह घटना है। उस समय जैनसंघ में आचार्य श्री धर्मघोषसूरिजी का अद्भुत प्रभाव फैला हुआ था। वे उच्च कक्षा का संयमपालन तो करते ही थे, साथ साथ वे विशिष्ट मंत्रशक्ति के धारक थे। महान् श्रुतधर थे। विद्यापुर नगर में, कि जहाँ पेथड़शाह अपने परिवार के साथ रहते थे, आचार्यदेव का चातुर्मास था | पेथड़शाह अपनी आजीविका की चिन्ता में इतने व्यग्र रहते थे कि उपाश्रय में आना भी उनके लिए असंभव-सा हो गया था। परन्तु एक दिन उनका भाग्य ही उनको उपाश्रय में ले आया। जिस समय पेथड़शाह उपाश्रय में आये, उस समय आचार्यदेव धर्मोपदेश दे रहे थे। सैकड़ों स्त्री-पुरुष धर्मोपदेश सुन रहे थे। पेथड़शाह भी सबके पीछे बैठ गये। आचार्यदेव व्रत की ही बात बता रहे थे। साथ-साथ अव्रत-अविरति के नुकसान भी बता रहे थे। 'जो मनुष्य, धर्मोपदेश सुनकर, विशुद्ध भाव से थोड़ा भी व्रत ग्रहण करता For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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