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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रवचन- ७६ ३३ मिलता है। तब तक वह सोच-विचारकर परिचय नहीं कर सकता है । उसमें सोचने की, अच्छे-बुरे का भेद करने की बौद्धिक क्षमता ही नहीं होती है। इसलिए, भारतीय संस्कृति में ऐसी व्यवस्था है कि ऐसे अबोध बच्चों की जिम्मेदारी उनके पालक माता-पिता करते रहें। बच्चों को किसके परिचय में आने देना, किसके परिचय में नहीं आने देना - इसका निर्णय माता-पिता वगैरह पालक वर्ग करें। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारसंपन्न मनुष्य का निर्माण करने की द्रष्टि, माता-पिता वगैरह पालकवर्ग के पास होनी चाहिए । परन्तु ऐसी दृष्टि उनके पास ही होगी कि जो स्वयं संस्कारसंपन्न होंगे। सुसंस्कारों के जो पक्षपाती होंगे। अवांछनीय तत्त्वों से जो घृणा करते होंगे। जो स्वयं विवेकी होंगे। परिचय तो होता रहेगा और करना भी पड़ेगा। जीवन - व्यवहार में, आवश्यकतानुसार परिचय करना पड़ता है । परन्तु, किस व्यक्ति से परिचय करना चाहिए और कितना परिचय करना चाहिए वह निर्णय विवेक से करना चाहिए । - प्रस्तुत में ग्रन्थकार आचार्यश्री किसी से भी अति परिचय करने की मनाही फरमाते हैं। यह निषेध उन्होंने दूरदर्शिता से किया है, दीर्घदृष्टि से किया है। ‘अति’ अत्यंत खतरनाक है : जो मनुष्य हमारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, हमारे प्रति स्नेह-प्रेम बताता है, हमारा कोई काम कर देता है, हमें संकट के समय सहायता करता है, उसके साथ हमारा परिचय 'अति' हो जाता है। यानी गाढ़ परिचय स्थापित हो जाता है। इसमें हमें कुछ बुरा नहीं लगता है। सामनेवाले व्यक्ति को भी कुछ बुरा नहीं लगता है। हम ऐसे परिचयों से गौरवान्वित भी होते हैं । बोलते हैं : '... उनके साथ तो हमारा घर जैसा संबंध है।' एक-दूसरे के घर जाना, खानापीना, घूमना, आदान-प्रदान... वगैरह व्यवहार अत्यधिक हो जाता है। For Private And Personal Use Only ग्रन्थकार महर्षि, ऐसे अति परिचय में एक बड़ा भयस्थान देखते हैं। वे कहते हैं : 'अतिपरिचयाद् अवज्ञा ।' अति परिचय होने पर एक-दूसरे की मर्यादाओं का पालन नहीं होता है । कभी मर्यादाभंग हो जाता है ... एक-दूसरे का तिरस्कार होने लगता है । वाणी पर संयम नहीं रहता है | असंयमी वाणीव्यवहार संबंध-विच्छेद में परिणत होता है । अति परिचय अति द्वेष में परिणत हो जाता है। एक-दूसरे से बोलने का व्यवहार भी नहीं रहता है।
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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