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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-९६ २४७ लोलुप हूँ? मैं भीतर से रागी हूँ, विषयासक्त हूँ...यह राजा सच्चा विरक्त है | धिक्कार है मुझे....' ब्रह्मचारी वहाँ से गाँव छोड़कर ही चला गया। राजा ने उसको खोजा, परन्तु वह नहीं मिला। __किसी जीवात्मा को जन्म-जन्मांतर के संस्कार से सहज वैराग्य प्राप्त होता है। ऐसे जीवों को वैराग्य के उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती है। जो ऐसे वैरागी नहीं है, उनको वैराग्यभरपूर उपदेश सुनने से वैराग्य प्राप्त होता है | परमात्मा की भक्ति करने से भी वैराग्य प्राप्त होता है। भीतर में वैराग्य जाग्रत हो जाने पर सामान्य धर्मों का पालन करना सरल बन जाता है। वैसे, परमात्मा से आन्तरिक प्रीति संबंध बन जाने पर भी सामान्य धर्मों का पालन सरल बन जाता है। परमात्मा से आन्तरिक संबंध बन जाने पर तो अनेक गुणों का प्रकटीकरण हो जाता है। यानी परमात्मा से लगाव हो जाने पर दुनिया से और दुनिया के पदार्थों से लगाव कम हो जाता है। परमात्मा से लगाव हो जाने पर, परमात्मा की आज्ञाओं का पालन करने की शक्ति जाग्रत हो जाती है | न लोभ उसको गिरा सकता है, न भय उसको चलित कर सकता है | परमात्मप्रेमी मनुष्य लोभ और भय पर विजय पाता है। यानी सामान्य धर्मों के पालन में क्षति पहुँचाये वैसा लोभ नहीं होता, वैसा भय नहीं होता। संबंध जोड़ो परमात्मा से : परमात्मा के सुबह, दोपहर और शाम - तीनों समय दर्शन करते रहें। परमात्मा की मूर्ति में साक्षात् परमात्मा के दर्शन करने का प्रयत्न करते रहते रहें। हार्दिक भावना से परमात्मा को कहें अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात् कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर! 'मैं आप की ही शरण हूँ भगवंत, आपके अलावा मेरी कोई शरण नहीं है। इसलिए हे जिनेश्वर, करुणा से मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।' __स्तुति करते समय मन और नयन परमात्मा से जोड़ें। स्थिर मन से और स्थिर नयनों से परमात्मा के सामने देखें । आन्तरिक निर्णय के साथ स्तुति करें : 'मुझे आपसे संबंध बाँधना है।' हृदय का वैराग्य बोलेगा : 'अब दुनिया से संबंध तोड़ना है। टूट ही रहा है।' For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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