SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ५१ ३१ ग्रन्थकार आचार्यश्री, उपद्रववाले स्थान का त्याग करने का उपदेश देते हैं, क्योंकि उपद्रवयुक्त स्थान में रहने से धर्मकार्य नहीं हो सकते। इतना ही नहीं, धनसंपत्ति की हानि होती है और पारिवारिक नुकसान भी होता है। गृहस्थ जीवन में ये तीन बातें महत्त्व रखती हैं । इन तीन बातों के अलावा क्या रहता गृहस्थ जीवन में? धर्म नहीं, अर्थ नहीं और काम नहीं, तो शेष क्या बचेगा ? संयमधर्म का यथोचित पालन है निरुपद्रवी स्थान में ज्यादा सरल होता है : यह बात, उपद्रववाले स्थान का त्याग करने की बात, मात्र आप लोगों के लिए ही ज्ञानी पुरूषों ने कही है, वैसी बात नहीं है । हमारे लिए यानी साधुसाध्वी के लिए भी कही गई है। कुछ विशिष्ट उपद्रव उत्पन्न हो जाय तो चातुर्मास में भी स्थान-परिवर्तन, गाँव-परिवर्तन करने की जिनाज्ञा है । चूँकि, साधु-साध्वी को भी संयमधर्म की आराधना करने की है न! संयमधर्म का यथोचित पालन निरुपद्रवी स्थान में हो सकता है। जहाँ संयमघातक, प्राणघातक या प्रवचन-घातक उपद्रवों की संभावना हो, वहाँ जाना ही नहीं चाहिए । उपद्रव जान-बूझकर तो पैदा ही नहीं करने के हैं । दूसरों की तरफ से पैदा हों तो वहाँ से चले जाना चाहिए। हालाँकि, साधु-साध्वी को अर्थ- काम की हानि होने का कोई भय नहीं होता है, उनको तो अपने संयमधर्म की आराधना ही करने की होती है। इसमें भी जब विशाल साधु-साध्वी समुदाय हों तब तो काफी गंभीरता से सोचना पड़ता है। सभी की शान्ति-समाधि का विचार करना पड़ता है। दीर्घदृष्टा आचार्य की यह जिम्मेदारी होती है । उपद्रवग्रस्त गाँवनगर और प्रदेश को छोड़कर, साधु-साध्वी के समुदाय को लेकर वे निरुपद्रव प्रदेश में चले जाते हैं । आचार्य का प्रधान लक्ष्य होता है साधु एवं साध्वी की संयमधर्म की आराधना । साधु-साध्वी निराकुलता से, शान्ति से अपनी अपनी धर्माराधना करते रहें, उनकी आराधना में विक्षेप न आयें, उनके जीवन को क्षति न पहुँचे और जिनशासन की शान, जिनशासन का गौरव बना रहे, इस दृष्टि से आचार्य श्रमणसंघ का नेतृत्व करते हैं अथवा कहें कि इस दृष्टि से आचार्य को श्रमणसंघ का नेतृत्व करने का शास्त्रों में कहा गया है। गृहस्थ के सामान्य धर्म में जब यह सावधानी बतायी गई है तब साधु के विशेष धर्म में तो यह सावधानी नितान्त आवश्यक हो - यह स्वाभाविक है । For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy