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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ७० २३९ दीनजनों की यथायोग्य सेवा करनी चाहिए, गृहस्थजनों को। पहले 'दीन' की व्याख्या सुन लो | जो धर्म करने में समर्थ न हों, जो अर्थोपार्जन करने में समर्थ न हों और जो विषयभोग करने में भी समर्थ न हों। इनको कहते हैं दीन। जिनका शरीर जर्जरित हो गया हो, जिनका मन निर्बल हो गया हो, जो मृत्यु की राह में ही जीते हों....ये होते हैं दीन। ऐसे दीनजनों की सेवा करने की होती है। उनको भोजन देना, पानी देना, वस्त्र देना, आश्रय देना.... विविध सेवा करने की है। सभा में से : हमें तो घरवालों की सेवा करने का भी समय नहीं मिलता है, तो फिर ऐसे दीनजनों की सेवा करने का समय कहाँ से मिलेगा ? महाराजश्री : आपका समय जाता कहाँ है ? आपको सिनेमा देखने का समय मिलता है, शादी के समारोहों में जाने का समय मिलता है, दोस्तों के साथ गपसप लड़ाने का समय मिलता है, रेडियो सुनने का समय मिलता है....टीवी, विडियो देखने का समय मिलता है, दीनजनों की सेवा के लिए समय नहीं मिलता है ! आश्चर्य है न ? वास्तविकता दूसरी है, आप छिपाते हो....। हृदय में करुणा का भाव नहीं है, सही बात है न? दीन कौन ? दीनजन की व्याख्या टीकाकार आचार्यश्री ने अच्छी की है । जो व्यक्ति कोई भी पुरुषार्थ करने में सक्षम न हो, अशक्त - असमर्थ हो, उसको 'दीन' कहा। ऐसे जीवों को आश्रय देना ही चाहिए । ऐसे मनुष्यों की सेवा करनी ही चाहिए । यह भी मनुष्य की एक अति दयनीय अवस्था होती है..... । कोई भी मनुष्य ऐसी अवस्था को पा सकता है.... घोर पापकर्म के उदय से । परमात्मा से प्रार्थना करें कि किसी भी जीव को ऐसी अवस्था नहीं मिले। सभा में से : दूसरे दीनजनों की बात जाने दें, घर में हमारे माता-पिता यदि सर्वथा अशक्य अथवा अपंग हो जाते हैं, कोई भी काम नहीं कर सकते हैं, तब उनकी सेवा भी हम कहाँ करते हैं? महाराजश्री : यदि ऐसी बात है तो आप लोग नैतिक अध:पतन की गहरी खाई में गिरे हुए हो, ऐसा ही मानना पड़ेगा । और, जब आप स्वयं वैसी दीन स्थिति में पहुँच गये तो फिर आपको अनुभव होगा कि उस स्थिति में यदि कोई सेवा करनेवाला नहीं हो तो तन-मन की कैसी दुःखमय स्थिति निर्मित For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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