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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ६६ १८६ के क्षणिक, विनाशी और चंचल सम्बन्धों में मोह क्या करना ? दूसरी बात, मेरा अध्ययन चल रहा है.... उसमें अन्तराय क्यों करना ? हाँ, माता के उपकारों को मैं भूल नहीं सकता। परन्तु जब तक अध्ययन पूरा न हो .... तब तक यहाँ रुकना आवश्यक है। परन्तु फल्गु, यदि तेरा मेरे प्रति स्नेह है तो तू मेरे पास रह जा। साधु बने बिना तू मेरे पास नहीं रह सकता ।' 'मुझे दीक्षा देने की कृपा करें, मैं आपके पास ही रहूँगा ।' फल्गुरक्षित ने बड़े भ्राता के चरण पकड़ लिये । आर्यरक्षित ने फल्गुरक्षित को दीक्षा दी और श्रमण बनाया । जब तक जनम मिले ऐसी माँ ही मिले : आर्यरक्षित के हृदय में माता का सन्देश गूँजता रहता है । वे अध्ययन करते हैं। श्रमण जीवन की क्रियाएँ भी करते हैं.... परन्तु अपने मन में माता की सौम्य मुखाकृति उभरती रहती है। माता के परम उपकारों की स्मृति, उस महाविरागी के हृदय को गीला कर देती है। 'मुझे माँ बुला रही है। मुझे शीघ्र जाना चाहिए। वह मात्र मोह से नहीं बुला रही है....उसकी भावना है चारित्र्यधर्म पाने की | वह मात्र मेरी जननी नहीं है, गुरु भी है! उसने अपने स्वार्थों का विसर्जन किया है ....! वह पूरे परिवार का आत्मकल्याण चाहती है। कितना भव्य त्याग ? कैसी दिव्यदृष्टि ? जब तक संसार में जन्म लेना पड़े तब तक ऐसी माता की कुक्षी में ही जन्म मिलता रहे.... ।' आर्यरक्षित एक दिन विह्वल बने और श्री वज्रस्वामी के चरणों में जाकर पूछा : 'गुरूदेव, अब मेरा अध्ययन कितना शेष रहा है?' 'वत्स, बिन्दु जितना अध्ययन हुआ है, सिन्धु जितना शेष है ।' आर्यरक्षित मौन रहे। काफी लगन से अध्ययन में जुड़ गये । दसवाँ पूर्व आधा पढ़ लिया था । पुनः उनके मन में दशपुर जाने की इच्छा प्रबल हो उठी। वे क्या करते हैं आगे बात करूँगा । आज बस, इतना ही । For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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