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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ३० ६६ यह है पवित्र विचारधारा ! बहती है न यह विचारधारा आपके हृदय में? परिग्रह संज्ञा के दारुण विपाक सोच सके वैसी दीर्घ- दृष्टि है न अखंडित ? परिग्रह की संज्ञा की कुटिलता को पहचान सके वैसी सूक्ष्म बुद्धि है न सलामत? एक बात कभी न भूलें कि संपत्ति की ममता यानी परिग्रह की संज्ञा छूमन्तर हुए बिना न्याय - नीति का पालन होना असम्भव है । अन्याय और अनीति नहीं करने का कितना भी जोरदार उपदेश हम लोग आपको दें, परन्तु तब तक आप पर उपदेश का असर नहीं होगा जब तक आपकी परिग्रह संज्ञा पुष्ट है, दृढ़ है, प्रबल है । पैसे कमाने के गलत तरीके छोड़ोगे सही? आप लोगों ने परिग्रह को तो सुख का साधन मान रखा है ! आप बोलते भले हों कि ‘परिग्रह पाप है, परन्तु आप मानते हो परिग्रह को पुण्यकर्म का फल! पुण्यकर्म के उदय से जो-जो वैषयिक सुख के साधन आपको मिले हैं, आप उन साधनों के प्रति तीव्र अनुरागी बने हो । आपकी दृढ़ मान्यता हो गई है कि 'हमारे पास जितनी ज्यादा संपत्ति होगी, हम उतने ही ज्यादा सुख के साधन प्राप्त कर सकेंगे .... इसलिए ज्यादा से ज्यादा धन कमा लो ! धन कमाने में नीति-अनीति का विचार नहीं करना चाहिए। जिस रास्ते से, जिस उपाय से धन मिलता हो, ले लेना चाहिए, कमा लेना चाहिए ! ' है न ऐसी विचारधारा? ऐसी विचारधारा वालों पर उपदेश का असर कैसे हो सकता है? एक गाँव में हम गये, एक श्रीमंत गृहस्थ मेरे पास आया। उससे मेरी जो बात हुई, मुझे ज्ञात हुआ कि उसका व्यवसाय न्यायपूर्ण नहीं था। हालाँकि वह कुछ धर्मक्रियाएँ जरूर करता था परन्तु अन्याय - अनीति छोड़ने को तैयार नहीं था। अन्याय-अनीति करनेवालों के हृदय कोमल नहीं होते, कठोर होते हैं। मैंने उस श्रीमन्त से कहा : 'अन्याय-अनीति करने से हृदय क्रूर बनता है और हृदय में धर्म नहीं रह सकता, इसलिए आप यह गलत रास्ता छोड़ दो।' जब मैंने उसकी धर्मक्रियाओं की प्रशंसा नहीं की, उसकी अनीति और बेईमानी को दूर करने का उपदेश दिया, उसको पसन्द नहीं आया, वह चला गया ! जिस रास्ते से आप लोगों को धन मिलता है, वह रास्ता गलत हो और हम आपको वह रास्ता छोड़ने का उपदेश दें, क्या आपको उपदेश पसन्द आयेगा? क्या आप वह रास्ता छोड़ देंगे ? For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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