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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३० राक्षसी ने तीनों लोक पर अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया है। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने 'ज्ञानसार' में कहा है : 'परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्त्रया?' 'परिग्रह' नाम का यह कौन-सा ग्रह है, जिसने तीनों लोक को विडंबित कर रखा है? 'परिग्रह' की परिभाषा करते हुए ज्ञानी पुरुषों ने कहा है : 'मूच्छा परिग्गहो वुत्तो' मूर्छा-ममत्व ही परिग्रह है। आपको जिस-जिस व्यक्ति पर ममत्व है- वह आपके लिए परिग्रह है। अब आत्मसाक्षी से सोच लो कि किस-किस वस्तु पर, किस-किस व्यक्ति पर आपकी ममता है। जिस वस्तु के प्रति ममता-आसक्ति बंध जाती है, उस वस्तु को पाने के लिए मनुष्य क्या नहीं करता है? पायी हुई प्रिय वस्तु की रक्षा के लिए क्या-क्या करता है? जिस वस्तु पर आपको गहरी ममता है, वह वस्तु यदि चली गई तो आपके हृदय में क्या होगा? सभा में से : 'हार्ट-एटेक' ही आ जाय! महाराजश्री : परिग्रह संज्ञा से पीड़ित-व्यथित मनुष्यों को ही ज्यादातर 'हार्ट-एटेक' आता है। पागलपन भी इन लोगों को ही ज्यादातर आता है। यदि ऐसे गंभीर रोगों से बचना है तो परिग्रह की संज्ञा को तोड़ दो, नष्ट कर दो। धन-संपत्ति के प्रति प्रचुर ममता-आसक्ति होने से ही मनुष्य धन-संपत्ति पाने के लिए अन्याय-अनीति करता है। बेईमानी और अप्रामाणिकता से व्यवसाय करता है। द्रव्यासक्ति में डूबा हुआ मनुष्य अन्याय-अनीति के परिणाम को सोच नहीं सकता। द्रव्यासक्ति मनुष्य की सद्बुद्धि को, सूक्ष्म बुद्धि को नष्ट कर देती है। परिग्रह की वासना को अंकुश में रखो : धन-वैभव की तीव्र ममता जिस हृदय में होती है उस हृदय में पवित्र विचार नहीं टिक सकते। 'पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त होनेवाली संपत्ति चंचल होती है, विनाशी होती है.... क्षणिक होती है, मुझे ऐसी चंचल संपत्ति पर ममता नहीं करनी चाहिए, ऐसी क्षणिक संपत्ति के प्रति रागी नहीं बनना चाहिए। जड़भौतिक संपत्ति का राग जीवात्मा को दुर्गति में ले जाता है। पशुयोनि में पटक देता है। आगे दुर्गति की परंपरा शुरू हो जाती है। 'मुझे अब दुर्गतियों में नहीं भटकना है, दुर्गति के दुःख अब नहीं भोगने हैं। अब भौतिक सम्पत्ति का राग नहीं करूँगा, अब मैं परिग्रह संज्ञा के वश नहीं रहूँगा।' For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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