SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४६ २६५ सुख नही सुखाभास : पशु-पक्षी और मनुष्य की मैथुनजन्य तृप्ति ऐसी ही है। अपने ही शरीर की एक धातु का स्राव हो जाता है....और जीवात्मा मानता है कि मुझे सुख मिल रहा है! उपभोग्य पात्र मुझे सुख दे रहा है! इसलिए वह अपना उपभोग्य पात्र खोजता रहता है। जब तक वैसा पात्र नहीं मिलता है, वह बेचैनी महसूस करता रहता है। इसलिए तो स्त्री-पुरुष के बीच शादी का संबंध स्थापित हुआ है। स्त्री या पुरुष, जो इस कामवासना के परवश होते हैं, विषयभोग में सुख मानते हैं, और मैथुनजन्य सुख पाने को लालायित होते हैं, वे अपनी इच्छा के अनुसार सुख प्राप्त कर सकें, इसलिए शादी कर लेते हैं। फिर उनको पात्र ढूंढ़ने नहीं जाना पड़ता है। स्त्री को पुरुषपात्र और पुरुष को स्त्रीपात्र मिल जाता है। पति-पत्नी का संबंध इस हेतु से प्रस्थापित हुआ है। परन्तु, एक सुख.... जो कि वास्तव में सुख नहीं है, सुखाभास है.... उसको पाने के लिए मनुष्य कैसा बन्धन स्वीकार कर लेता है! शादी करके स्त्री पुरुष का और पुरुष स्त्री का बन्धन स्वीकार कर लेता है। एक बंधन में से नये नये अनेक बंधन होते जाते हैं। सारे संबंध बन्धन ही तो हैं! ___ सभा में से : शादी नहीं करें और किसी भी पात्र के साथ विषयोपभोग करें तब तो फिर बंधन नहीं रहें! ___ महाराजश्री : जब तक इच्छाएँ रहेंगी तब तक बंधन रहेंगे ही! जिस किसी के साथ शारीरिक संबन्ध करनेवाले भयानक रोगों के शिकार बन जाते हैं। जिस किसी के साथ सम्बन्ध करनेवालों के मन अति चंचल बन जाते हैं। तन और मन के अनेक रोग ऐसे लोगों को घेर लेते हैं। इसलिए, दो रास्ते हैं.... या तो ब्रह्मचारी बनो या तो शादी करके गृहस्थाश्रमी बनो! ब्रह्मचारी नहीं रहना है और शादी भी नहीं करनी है... तब तो परेशानी का पार नहीं रहेगा। आप स्वयं दुःखी बनोगे और समाज का दूषण बनोगे। ऐसे लोग जिनका एक स्त्री से लगाव नहीं होता है, अनेक स्त्रियों से संबंध रखते हैं, समाज के लिए अभिशाप रूप बन जाते हैं। समाज की महिलाओं के लिए यह खतरा बन जाता है। कामवासना इस तरह आन्तरिक शान्ति का नाश कर देती है। आन्तरिक शान्ति, आन्तरिक प्रसन्नता, आन्तरिक आनन्द....हमारा धन है, हमारी संपत्ति है, कामवासना इस संपत्ति की लूट करती है। दुराचार और व्यभिचार करनेवाले लोग इस आन्तरिक संपत्ति को सर्वथा खो देते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy