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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ प्रवचन-२६ अर्थपुरुषार्थ! अर्थ के बिना कामपुरुषार्थ संभव नहीं। पैसे के बिना वैषयिक सुख नहीं मिलते। पैसे के बिना घर नहीं, दुकान नहीं, पत्नी नहीं, गाड़ी नहीं, इज्जत नहीं। भोगसुख की सामग्री पैसे के बिना नहीं मिलती। वैसे, आवश्यक धनसंपत्ति और आवश्यक भोग-सामग्री के बिना आपका तन-मन क्या धर्मक्रियाओं में स्थिर रहेगा? धर्मस्थानों में जाने का अवकाश मिलेगा? जैसे उन्मत्त इन्द्रियाँ जीवात्मा को धर्मसन्मुख नहीं होने देती वैसे अतृप्त इन्द्रियाँ भी जीवात्मा को धर्म में स्थिर नहीं होने देती। धर्मश्रद्धा और धर्माचरण में बाधक बनती हैं। हाँ, इन्द्रियों को तृप्त करने में विवेक और मर्यादा आवश्यक है। विवेक और मर्यादा से तृप्त बनी हुई इन्द्रियाँ धर्मआराधना में सहायक बनती हैं। धर्माराधना में मन और इन्द्रियाँ लीन बनती हैं तब ही वह धर्मपुरुषार्थ मोक्षसाधक बनता है, यानी मोक्षपुरुषार्थ में जीवात्मा प्रगति कर सकता है। धनोपार्जन, श्रीमंत बनने के लिए केवल भोग-विलास करने के लिए प्रकट और प्रच्छन्न पापाचरण करने के लिए नहीं करना है। आपकी दृष्टि भोगदृष्टि नहीं होनी चाहिए, धर्मदृष्टि चाहिए। योगदृष्टि चाहिए। यदि आपकी दृष्टि निर्मल है, धर्मदृष्टि है और आप अर्थपुरुषार्थ करते हो तो अर्थपुरुषार्थ भी धर्मपुरुषार्थ बन जाएगा। यदि आपकी दृष्टि मलिन है, भोगदृष्टि है और आप धर्मपुरुषार्थ करते हो तो धर्मपुरुषार्थ नहीं बन सकता है। विवेक-मर्यादा-औचित्य वही तो धर्म है : अर्थपुरुषार्थ में विवेक चाहिए, मर्यादा चाहिए, औचित्य चाहिए | ग्रन्थकार ने जो चार बातें बतायी हैं, बड़ी महत्वपूर्ण बातें हैं। उन्होंने विवेक बताया है, मर्यादा सिखाई है, औचित्य समझाया है। यह विवेक मर्यादा और औचित्य ही तो धर्म है। अर्थपुरुषार्थ में यदि ये विवेक-मर्यादा और औचित्य नहीं हों, तो अर्थपुरुषार्थ धर्म नहीं कहलाएगा। सर्वप्रथम औचित्य बताया कुलपरम्परा का। यदि आपकी कुलपरम्परा से कोई अच्छा व्यापार, अच्छा व्यवसाय, अच्छी नौकरी चली आ रही है, आप उसी व्यापार-व्यवसाय में जुड़ जाएँ। उसी नौकरी को स्वीकार कर लें। __हालाँकि वह व्यवसाय निन्दनीय नहीं होना चाहिए यानी शिष्ट-सज्जन पुरुषों में मान्य, प्रशंसनीय होना चाहिए। प्राचीन काल में यह एक पद्धति थी। कुलपरंपरा से जो व्यवसाय चला आता हो, उस व्यवसाय को ही लोग पसन्द करते। आजकल भी कुछ शहरों For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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