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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४२ २१९ किराये के मकान में रहने चले गए...| आपके हृदय में उस परिवार के प्रति सहानुभूति है, आप एक दिन मिलने गए। आप पहुँचे वहाँ, आपका स्वागत हुआ। आपने वहाँ किसी के मुँह पर दीनता नहीं देखी, शोक नहीं देखा! जब आप सहानुभूति के दो शब्द बोलते हो तो उस परिवार की मुख्य महिला कहती है : 'संसार में ऐसा तो होता रहता है...कर्मों का खेल है, हमें कोई गम नहीं है। हमारी धर्मआराधना सुचारू रूप से चल रही है।' ऐसी बात सुनकर आप का हृदय उनकेप्रति, उनकी अदीनता के प्रति सद्भाव से भर जाता है, तो मानना कि 'शिष्टचरितप्रशंसनम्' नाम का गुण आपने पा लिया है। परन्तु उनकी बात सुनकर यदि आप दूसरे ढंग से सोचने लगते हो कि 'एक तो दुःखी-दुःखी हो गये हैं...फिर भी धर्म की बात करते हैं। देखा बड़े धर्मात्माओं को। बड़ी मुश्किल से गुजारा करते हैं....फिर भी हँसने का दिखावा करते हैं....।' सोचने का भी तरीका बदलना जरूरी है : ऐसा सोचोगे तो कभी भी आप आपत्ति में धैर्य रखने की शक्ति नहीं पाओगे | आपत्ति में धैर्य रखना बहुत बड़ा गुण है। सद्गृहस्थ का लक्षण है। जैसा आपत्ति में अधीरा नहीं होना है वैसे संपत्ति में अभिमानी नहीं बनना है। यदि किसी व्यक्ति को संपत्ति में निरभिमानी देखते हो तो क्या सोचते हो? मान लो कि आपका कोई मित्र दरिद्रता से ग्रसित है, व्यवसाय करने बम्बई गया....वहाँ उसका भाग्य खुल गया... चार-पाँच वर्ष में पाँच-दस लाख रूपये कमा लिये, आप किसी कार्यवश बम्बई चले गये। मित्र को मिलने उसके घर गये। आपको देखते ही मित्र सामने आता है.... आपको गले लगाता है, अपने श्रीमंत मित्रों से आपका परिचय देता है...आपकी अच्छी आवभगत करता है...तो आपको खुशी होगी या नहीं? हालाँकि आपका सद्भाव बढ़ेगा या नहीं? संपत्ति में भी उसकी नम्रता, आपको प्रिय लगेगी न? आप उसकी नम्रता की सराहना करोगे न? यदि ऐसी सराहना करते रहोगे तो आप भी संपत्ति में नम्र बने रहोगे! अभिमान को सुलगा दो : संपत्ति में अभिमान नहीं करना, यह बात मात्र धन-संपत्ति से ही जुड़ी हुई है, इसका संबंध बल-संपत्ति से भी है, रूप-संपत्ति से भी है, बुद्धि की संपत्ति For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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