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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन- ३८ VISIO www.kobatirth.org १६९ BOLLY गृहस्थ का सामान्य धर्म मंदिर - उपाश्रय या धर्म-स्थान में करने का धर्म नहीं है... परन्तु घर पर, दुकान पर और बाजार में, स्वजनों के बीच जोने का यह जीवनधर्म है। * दूसरों के साथ अन्याय करनेवाला स्वयं कभी भी निर्भय नहीं हो सकता। अन्याय करनेवाले के दुश्मन भी होंगे हो । वह सुख-चैन से जो नहीं सकता! कान खोलकर सुन लो : तुमने यदि किसी के भी साथ अन्याय दुर्व्यवहार किया है तो उसका बदला तुम्हें व्याज के साथ चुकाना होगा। कर्मों के राज्य में देर भी नहीं, अंधेर भी नहीं! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुक्त सहचार के नाम पर जो कुछ हो रहा है.... अपने समाज को तंदुरुस्ती के लिए खतरनाक है। हमें काफी गहराई से सोचने को जरूरत है। प्रवचन : ३९ महान् श्रुतधर पूजनीय आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थजीवन का सामान्य धर्म बताया है। सामान्य धर्म यानी प्राथमिक धर्म । व्रत-नियम वगैरह तो विशेष धर्म है, विशेष धर्म की आराधना करने की पात्रता सामान्य धर्म में रही हुई है, यानी सामान्य धर्म को अपने जीवन में जीनेवाला मनुष्य विशेष धर्म की आराधना के लिये पात्र बनता है । सामान्य धर्म की उपेक्षा करने वाला मनुष्य विशेष धर्म की आराधना करने का पात्र नहीं है । रोजरोज जीने का धर्म : सामान्य धर्म की बात गृहस्थ जीवन की हर क्रिया के साथ जुड़ी हुई बात है। सामान्य धर्म मंदिर वगैरह धर्म स्थानों में करने का धर्म नहीं है, घर, दुकान, बाजार और स्वजन - परिवार में जीने का धर्म है। जो मनुष्य अपने जीवन में सामान्य धर्म का यथोचित पालन करता है वह मनुष्य अनेक उपद्रवों से, संकटों से बच जाता है । जिस मनुष्य को स्वस्थता से, प्रसन्नता से जीवन व्यतीत करना है उसको उपद्रवों से बचना चाहिए। संकटों से बचकर जीना चाहिए । For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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