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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-५ अथवा योगी होता है! फल की, परिणाम की इच्छा रखे बिना आप लोग कोई प्रयत्न, कोई प्रवृत्ति करते हो? फलेच्छा जीव का स्वभाव है! 'ह्युमन नेचर' है | मूर्ख मनुष्य, पागल मनुष्य फल का, प्रवृत्ति के परिणाम का विचार कर ही नहीं सकता। उसकी बुद्धि का विकास ही नहीं होता कि वह फल की कल्पना कर सके। अच्छे या बुरे परिणाम की भेदरेखा वह नहीं खींच सकता। जो अनासक्त योगी होते हैं, वे तो आत्मस्वरूप में ही लीन रहते हैं; फल का, परिणाम का कोई विचार ही उनको नहीं उठता है! कोई जिज्ञासा नहीं, कोई शंका नहीं। सहज-स्वाभाविक रूप से वे आत्मरमणता करते रहते हैं। ऐसे योगी पुरुषों के सामने धर्म का प्रभाव नहीं बताया जा रहा है! वे तो समझे हुए ही हैं। वैसे मूर्ख, पागल मनुष्य भी इस उपदेश का लक्ष्य नहीं है । मूर्ख को उपदेश नहीं दिया जाता। विक्षिप्त चित्तवाले को उपदेश नहीं दिया जाता | जो योगी भी नहीं हैं और मूर्ख भी नहीं हैं, ऐसे लोगों को लक्ष्य बनाकर यहाँ धर्म का प्रभाव बताया गया है! मैं आप लोगों को जैसे योगी नहीं मानता हूँ, वैसे मूर्ख भी नहीं मानता हूँ। अज्ञानता का स्वीकार ही ज्ञान की भूमिका है : सभा में से : हम लोग तो मूर्ख ही हैं! महाराजश्री : मूर्ख कभी अपने आपको मूर्ख नहीं मानता! पागल आदमी कभी अपने आपको पागल नहीं मानता! कभी पागलखाने में गये हो? पागल के रूप में नहीं, दर्शक के रूप में गये हो? पूछना कभी पागलखाने के डॉक्टर को कि 'पागलखाने में आनेवाले लोग क्या मानते हैं कि 'हम पागल हैं...?' मूर्ख मनुष्य अपने आपको बहुत बड़ा बुद्धिमान मानता है! जिसको यह बात समझ में आ जाती है कि 'मैं मूर्ख हूँ,' मैं समझता हूँ कि वह बुद्धिमान है। अपनी मूर्खता का ज्ञान होना, अपनी अज्ञानता का ज्ञान होना, मामूली बात नहीं है, बहुत गंभीर बात है, महत्त्वपूर्ण बात है। अज्ञानता का, मूर्खता का स्वीकार ही तो ज्ञानी बनने की भूमिका है। दंभ नहीं होना चाहिए, कपट नहीं होना चाहिए। मेरे पास आप मूर्खता का स्वीकार कर लो और यहाँ से बाहर जाते ही 'मैं तो बड़ा बुद्धिमान हूँ,' ऐसा गर्व करो तो दंभ होगा। अज्ञानता का स्वीकार ही तो नम्रता है | नम्रता में से विनय पैदा होता है। विनय को धर्म का मूल बताया गया है। यदि सच्चे हृदय से कहते हो कि 'हम लोग मूर्ख हैं' तो बहुत बड़ी बात की है आपने | बहुत सुन्दर-'वेरी नाइस' बात कही है आपने | धर्मतत्त्व को पाने की योग्यता प्राप्त कर ली आपने। For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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