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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९५ प्रवचन-२२ अपनी मान्यता का दुराग्रह खतरनाक चीज है : । __ मुनियों ने जाकर भगवान से बात कही। भगवान ने जमाली मुनि को अपने पास बुलाकर 'कड़ेमाणे कड़े' का सिद्धान्त समझाने का भरसक प्रयत्न किया । परन्तु जमाली अब तक अहंकार के साथ ममकार से भी बँध गये थे! उनके मन में अपनी बात का ममत्व बँध गया था! हजारों साधु-साध्वी में भी इस सिद्धान्त की चर्चा शुरू हो गई थी। जमाली मुनि के मन में मेरा सिद्धान्त है 'कड़े कड़े!' ऐसा सिद्धान्त-ममत्व बंध गया था। 'भगवान का सिद्धान्त गलत है, मेरा सिद्धान्त सही है' - ऐसा आग्रह बन गया था। भगवान महावीर स्वामी ने बहुत समझाया जमाली को, परन्तु जमाली नहीं समझ पाये। अपना आग्रह नहीं छोड़ा। जमाली के मन में अब तिरस्कार का भाव उभर आया! परमात्मा के प्रति तिरस्कार हो गया । अहंकार-ममकार और तिरस्कार...उस त्रिपुटी ने जमाली मुनि का घोर पतन किया। जमाली भगवान को छोड़कर चले गए। अविनीत के प्रति भी कुछ सोचना है, पर क्या? जब परमात्मा जैसे परमात्मा की बात उनके जमाई-शिष्य ने नहीं मानी, तो फिर अपनी बात कोई नहीं माने, तो उसके प्रति रोष क्यों करना? अपनी हितकारी-कल्याणकारी बात भी कोई नहीं मानता है, तो उसके प्रति माध्यस्थ्य भाव ही रखना। माध्यस्थ्य भाव यानी न राग न द्वेष! अविनीत के प्रति द्वेष रखने की आवश्यकता नहीं। जब कोई आपकी बात नहीं माने, आपकी आज्ञा नहीं माने, तब इस प्रकार सोचना कि 'तीर्थंकर परमात्मा जैसे उत्कृष्ट पुण्यशाली की भी बात उनके जमाई-शिष्य ने नहीं मानी, उनकी पुत्री-शिष्या प्रियदर्शना ने नहीं मानी तो फिर मेरे जैसे अति अल्प पुण्यवाले की बात कोई नहीं मानता है तो आश्चर्य किस बात का? मैं कौन हूँ? मैं कुछ भी नहीं हूँ | मेरा पुण्य भी कुछ नहीं है। हे आत्मन्! तू अहंकार और ममकार को तोड़ दे।' फिर किसी भी जीव के प्रति तुझे तिरस्कार नहीं होगा। मिथ्याभिमान छोड़ दो! अपने व्यक्तित्व का बहुत ऊँचा खयाल अपने को अभिमानी-अहंकारी बनाता है। समाज में या परिवार में थोड़ा-सा मान-सन्मान मिल गया, कि हम For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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