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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० प्रवचन-२१ रखना क्या उचित है? भौतिक सुख तो संसार में डुबोनेवाला है, ऐसा आप फरमाते हो, फिर ऐसे सुखवालों के प्रति प्रेमभाव होना चाहिए या करुणाभाव? महाराजश्री : यदि आपके हृदय में, आप से जो ज्यादा सुखी हैं, जिनके पास भौतिक वैषयिक सुख आपसे ज्यादा हैं, उनके प्रति ईर्ष्या का भाव जाग्रत नहीं होता है और आपके पास भी जो वैषयिक सुख हैं वे बुरे लगते हैं, त्याग करने योग्य लगते हैं, तो आप दूसरे भौतिक सुखवालों के प्रति भावकरुणा का भाव रख सकते हो! यदि आपको अपने सुख पुण्य का उदय लगता है, मीठा मीठा लगता है और दूसरों के सुख पाप का कारण लगता है, दुर्गति का कारण लगता है तो समझना कि वहाँ ईर्ष्या का भाव ही काम करता है। पापानुबंधी पुण्य के उदय से मिलनेवाले सुख, आपके पास हों या दूसरों के पास हों, संसारसागर में डुबोनेवाले ही हैं | दूसरों के भौतिक सुख देखकर, आपको दयाभाव करने की आवश्यकता नहीं है। आप तो प्रमोदभाव ही रखिए। हाँ, कोई पापाचरण करता है तो करुणाभाव रखना। आज का सुखी : पूर्वजन्म का धर्मात्मा : एक बात आप समझ लीजिए | कोई भी सुख धर्म की आराधना किए बिना नहीं मिलता है। आज जो सुखी है, पूर्वजन्म का वह धर्मात्मा है। पूर्वजन्मों में धर्म की आराधना किए बिना यहाँ सुख मिल ही नहीं सकता। धर्म-आराधना से पुण्यकर्म का बंध होता है और पुण्यकर्म के उदय से सुख मिलता है। यह जैनधर्म का अविचल सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार आज का सुखी जीव, पूर्वजन्म का धर्मात्मा है | धर्मात्मा के रूप में उसको देखो, तो प्रमोदभाव आएगा ही। सभा में से : सुखी श्रीमन्तों को ज्यादा पाप करते हुए देखते हैं तो उनके प्रति द्वेष होता ही है। पापी के प्रति नहीं, पापों के प्रति द्वेष करो : __ महाराजश्री : पापों के प्रति द्वेष होता है न? उनके सुखों की ईर्ष्या तो नहीं होती है न? जरा अपने मन को टटोलो। देखो अपने भीतर! पापों के प्रति ही द्वेष होता हो तो अपराध नहीं है। ईर्ष्या-जन्य द्वेष होता है तो बड़ा अपराध है। पापों के प्रति द्वेष भले हों, पापी के प्रति द्वेष नहीं करने का है। पापी के प्रति तो करुणा अथवा मध्यस्थभाव ही रखने का है। For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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