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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-१७ ____ २२३ दुःखी जीव दो प्रकार के : संसार में दुःखी जीव दो प्रकार के होते हैं : एक द्रव्य से दुःखी, दूसरे भाव से दुःखी। जिनके पास खाने को नहीं है, पीने को नहीं है, पहनने को नहीं है, मकान नहीं है-ये लोग द्रव्य से दुःखी हैं | शरीर रोगी है, निर्धनता है, अनाथता है-यह सब द्रव्य दुःख हैं यानी बाह्य दु:ख हैं। वैसे, जिनके जीवन में धर्म नहीं है, पाप हैं, वे भाव से दु:खी हैं। हिंसा करते हैं, चोरी करते हैं, दुराचारी हैं, परिग्रही हैं, क्रोध करते हैं, अभिमान करते हैं, मायाकपट करते हैं... ये सब आन्तर दुःखी हैं। पापाचरण करनेवाले आन्तर दुःखी हैं। पापकर्म के उदय से जो दुःखी हैं, वे बाह्य दुःखी हैं। जिनका पापकर्मों का उदय है और यहाँ भी पापाचरण करते हैं वे बाह्य और आन्तर दोनों दृष्टि से दुःखी हैं। ऐसे भी जीव संसार में बहुत हैं, जो यहाँ दु:खी हैं फिर भी पापाचरण नहीं छोड़ते। ऐसे जीव करुणापात्र हैं। ऐसे जीवों के प्रति भी द्वेष नहीं करना है। भावकरुणा के विषय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के जीवन की एक घटना बताता हूँ। भगवान महावीर और संगमदेव : श्रमण भगवान महावीर जब साधनाकाल में थे, गाँव-नगर और जंगलों में विचरते थे, अनेक उपसर्ग-परिसह धीर-वीर बनकर सहन करते थे, उस समय एक बार देवराज इन्द्र ने अपनी देवपर्षदा में श्रमण भगवान महावीर के गुणगान किये, जी भरकर प्रशंसा की 'महावीर प्रभु का मनोबल मेरुवत् निश्चल है, कोई देव-दानव भी उनकी समाधि को भंग नहीं कर सकता । धन्य है भगवान की धीरता और वीरता।' इन्द्रसभा में सभी देवों के हृदय में भगवान के प्रति श्रद्धा और सद्भाव बढ़ गया, परन्तु एक देव के मन में आया : 'इन्द्र महावीर का भक्त है, इसलिए महावीर की इतनी प्रशंसा करता है। महावीर आखिर है तो मनुष्य न! देव की शक्ति के आगे मनुष्य की शक्ति क्या महत्त्व रखती है? मनुष्य कितना भी दृढ़ हो, देव उसको हिला सकता है। मैं जाकर महावीर की समता-समाधि को हिला दूं। उनके मनोबल को तोड़ दूँ!' गुणद्वेषी जीवों के समक्ष किसी की भी प्रशंसा मत करो : दूसरों की प्रशंसा सब लोग सुन नहीं सकते। गुणरागी मनुष्य ही दूसरों की प्रशंसा सुनकर राजी होता है। जीवद्वेषी, गुणद्वेषी मनुष्य तो दूसरों की प्रशंसा सुनकर नाराज होते हैं... इतना ही नहीं, उस गुणवान और पुण्यशाली मनुष्य को गिराने का प्रयत्न करते हैं। इसलिए प्रशंसा करते समय एक सावधानी For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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