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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९६ प्रवचन-१५ धर्मक्रियाएँ अशुद्ध मन से हो रही हैं : उपकारी पुरुषों के प्रति भी शत्रुता, स्वजनों के प्रति भी द्वेषभावना, स्नेही और परिचितों के प्रति भी रोष और नाराजी, दूसरे जीवों के प्रति भी अहितकर व्यवहार...फिर जाओ मन्दिर में, आओ उपाश्रय में, धर्मशाला में, करो सामायिक और प्रतिक्रमण, मान लो कि 'मैंने धर्म किया!' कब तक यह भ्रमणा बनी रहेगी? कब तक यह जड़ता जमी रहेगी? हृदयशुद्धि कब करोगे? । सभा में से : ऐसी ही धर्मक्रिया करते करते हृदयशुद्धि नहीं होगी क्या? महाराजश्री : कितने वर्षों से धर्मक्रियाएँ कर रहे हो? कितनी हृदयशुद्धि हुई? हृदयशुद्धि का लक्ष्य बनाया है क्या? हृदय की अशुद्धि अखरती है क्या? नहीं...नहीं...! निर्भय हो गये हो द्रव्यक्रियाएँ कर-करके! 'अशुद्ध हृदय से की हुई धर्मक्रियाएँ पुण्यकर्म तो बंधवायेंगी न!' बस, आपको तो पुण्यकर्म से संबंध है! फिर हृदयशुद्धि करोगे ही किसलिए? । प्रश्न : अशुद्ध हृदय से की हुई धर्मक्रिया से पुण्यकर्म नहीं बंधता है क्या? उत्तर : बंधता है! अशुद्ध तेल से भी भोजन बनता है या नहीं? कैसा तैयार होता है? सड़े हुए आटे से भी रोटी बन सकती है या नहीं? परन्तु कैसी? अशुद्ध हृदय हो और धर्मक्रिया करता हो तो द्रव्य-क्रिया से पुण्यबंध होगा, परन्तु वह पुण्यबंध पाप ज्यादा कराएगा, जब वह पुण्य उदय में आएगा तब! एक बात बराबर समझ लो : अशुद्ध चित्त में निःश्रेयस का लक्ष्य जाग्रत नहीं रह सकता । अशुद्ध चित्त में मोक्षप्राप्ति की आकांक्षा ही पैदा नहीं होती । अशुद्ध चित्त में ऐसा भावोल्लास उत्पन्न नहीं होता है कि क्रिया भावक्रिया बने । द्रव्यक्रिया भी वही कहलाती है कि जो भाव के लक्ष्य से की गई हो! चित्तशुद्धि के लक्ष्य से की गई क्रिया ही धर्मानुष्ठान बन सकती है। दुःख का द्वेष और सुखों की स्पृहा मत करो : दुःखभीरुता और सुखलिप्सा ने हृदय को अशुद्ध बनाए रखा है। दुःखभीरुता से और सुखलिप्सा से ही तो मनुष्य पापाचरण करता है! अकार्य करता है! यदि दुःख का भय नहीं हो और भौतिक सुखों की स्पृहा नहीं हो तो मनुष्य पाप करेगा ही नहीं! मदनरेखा ने दुःख का भय और सुखों की स्पृहा से हृदय अलिप्त रखा था। इसलिए तो मणिरथ ने अनेक प्रलोभन दिये फिर भी मदनरेखा मणिरथ की For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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