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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-१ १० प्रसिद्धि पाना था? हाँ, संसार में ऐसे उद्देश्यों से भी ग्रन्थरचनाएँ होती हैं! पैसा कमाने का उद्देश्य गृहस्थों का होता है, साधु-पुरुषों का नहीं। कंचन और कामिनी के त्यागी ऐसे श्रमण धनार्जन के लिए ग्रन्थरचना नही करते हैं, उनको धन-संपत्ति से कोई प्रयोजन नहीं होता। तो क्या ख्याति-प्रसिद्धि के लिए आचार्यश्री ने ग्रन्थरचना की है? अपन यह भी नहीं मान सकते हैं। प्रसिद्धि के प्रेमी लोग तो स्वप्रशंसा करने से बाज नहीं आते! आचार्यदेव ने कहीं पर भी स्वप्रशंसा नहीं की है... अपने ज्ञान या बुद्धि का गुणगान कहीं पर भी नहीं किया है। धर्मग्रन्थों की रचना में प्रायः ऐसा उद्देश्य रहता भी नहीं। प्रश्न : साहब! आजकल तो कुछ साधु-साध्वियों की छपी हुई ऐसी किताबें देखने को मिलती हैं, जिसमें अपने नाम की प्रसिद्धि के अलावा कुछ भी नहीं दिखता! उत्तर : ऐसी नाम की प्रसिद्धि क्या काम की? उस नाम की प्रसिद्धि आपके मन पर किस प्रकार हुई? अच्छी या बुरी? प्रसिद्धि दो प्रकार की होती है : सुप्रसिद्धि और कुप्रसिद्धि । कोई सुख्यात होता है और कोई कुख्यात होता है! ऐसी किताबें कि जिनमें कोई तत्त्वज्ञान नहीं, जिनमें कोई सत्प्रेरणा देनेवाली बातें नहीं अथवा इधर-उधर की किताबों में से कुछ अंश लेकर अपने नाम से छपवा देना...इत्यादि प्रवृत्ति करनेवाले लोग ख्यात तो होते हैं, परन्तु कुख्यात! ऐसी भी किताबों के कुछ इने-गिने लोग प्रशंसक होते हैं...आप लोग जैसे भगत! सही बात है न? संतों की ग्रन्थरचना प्रसिद्धि के लिए नहीं! एक बात समझ लो : साधुपुरुष कभी भी प्रसिद्धि के उद्देश्य से ग्रन्थरचना नहीं करते, प्रसिद्धि हो जाय, दूसरी बात है। हरिभद्रसूरिजी ने प्रसिद्धि के प्रयोजन से ग्रन्थरचना नहीं की थी, परन्तु प्रसिद्धि हो गई! आप अच्छी, उत्तम वस्तु देंगे, आपकी प्रसिद्धि होगी ही! लोग आपकी प्रशंसा करेंगे ही। हाँ, लोगों से अपनी प्रशंसा सुनने की वासना नहीं चाहिए, यह वासना भयानक होती है। स्वप्रशंसा सुनने की लालसा कभी सत्कार्यों से मनुष्य को दूर कर देती है। जब उसके सत्कार्य की प्रशंसा लोग नहीं करेंगे, वह सत्कार्य ही छोड़ देगा! मनुष्य के सभी सत्कार्यों की प्रशंसा हो ऐसा कोई नियम नहीं है। यदि आपके 'अपयशनामकर्म' का उदय हो तो आपकी प्रशंसा नहीं होगी, आपकी लोग निन्दा करेंगे, भले ही आपने काम अच्छा किया हो! श्री हरिभद्रसूरिजी तो आत्मज्ञानी महर्षि थे। ग्रन्थरचना का उनका लक्ष्य था 'सत्वानुग्रह' | जीवों के प्रति उपकार की बुद्धि से ग्रन्थरचना की है। मुमुक्षु For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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