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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-१ में इस ग्रन्थ की रचना की है। श्रुतसमुद्र की अपेक्षा इस ग्रन्थ में धर्मतत्त्वों के कुछ बिन्दु ही हैं, परन्तु अपने लिए तो यह ग्रन्थ ही बड़ा समुद्र है! ग्रन्थकार ने बिन्दु में सिन्धु भर दिया है। पानी की बूंदे होती हैं न? वैसे ये हैं धर्मतत्त्व की बूंदें! इस प्रकार आचार्यदेव ने इस ग्रन्थ को सर्वज्ञतामूलक बना दिया! ___ 'द्वादशांगी' कि जिसमें १४ पूर्व समाविष्ट है, अगाध समुद्र है! समुद्र का मंथन सब लोग नहीं कर सकते। आपने कभी समुद्र में गोता लगाया है? कभी समुद्र में तैरे हो? मुश्किल है न यह काम आपके लिए? परन्तु होते हैं ऐसे साहसिक मनुष्य कि जो समुद्र में गोता लगाते हैं और समुद्र में से रत्न ले आते हैं! ज्ञान का भी सागर है...लवण समुद्र नहीं, 'अरेबियन' समुद्र नहीं, क्षीरसागर है! दूध का सागर! अमृत का सागर! आचार्यदेव हरिभद्रसूरिजी कहते हैं कि ज्ञान के उस क्षीरसमुद्र में से कुछ बिन्दु लेकर मैंने इस ग्रन्थ की रचना की है। __ आपको उस अमृत-सागर का 'सेम्पल' मिलेगा! रसास्वाद करना, चखना, यदि 'टेस्टफुल'-स्वादिष्ट लगे तो फिर बिन्दु नहीं, लोटा भर-भरकर देंगे! हाँ, इस ज्ञानामृत का 'टेस्ट' लग गया, फिर पाँचों इन्द्रिय के विषयसुख नीरसस्वादरहित लगेंगे। सचमुच ज्ञानानन्द के आगे विषयानन्द कुछ भी नहीं है। 'ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म तद्वक्तुं नैव शक्यते' ज्ञानमग्न आत्मा को जो सुख-संवेदन होता है, वह शब्दों में नहीं कहा जा सकता। ग्रन्थकार महर्षि ऐसे ही ज्ञानमग्न महापुरुष थे। उनकी विनम्रता तो देखो...वे कहते हैं : 'श्रुत (ज्ञान) सागर से कुछ बिन्दु लेकर इस ग्रन्थ की रचना करता हूँ, मेरा इसमें कुछ भी नहीं, मैं तो एक माध्यम मात्र हूँ...।' सर्वजीवहितकारी जिनशासन के प्रति उनका कैसा अदभुत हार्दिक समर्पण है! 'जिनवचन से भिन्न मेरी स्वतंत्र कोई मतिकल्पना ही नहीं है!' अपने ज्ञान का, अपनी बुद्धि का अपनी जनप्रियता का कोई अभिमान ही नहीं! सच्चा ज्ञान इसको कहते हैं, जो 'अहं' को भुला देता है। ग्रन्थरचना का प्रयोजन : एक प्रश्न यह होता है कि आचार्यश्री ने ग्रन्थरचना ही क्यों की? क्या आवश्यकता थी ग्रन्थ लिखने की? बुद्धिमान और ज्ञानी पुरुष बिना प्रयोजन कोई काम नहीं करते, ग्रन्थरचना भी बिना प्रयोजन नहीं होती। तो बताइए, आचार्यदेव का क्या प्रयोजन होगा? क्या पैसा कमाना था? क्या ख्याति For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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