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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-१२ १५८ पसन्द नहीं करती हूँ...इसलिए मरना ही अच्छा है। मेरे निमित्त महामंत्री कलंकित हुए...उनको मैं ज्यादा आपत्ति...' बोलते-बोलते रानी रो पड़ी। पथमिणी रानी को प्रेरणा देती है : __पथमिणी की आँखें भी आँसूओं से भर गईं। पथमिणी ने रानी को अपने गले लगाकर कहा : 'मेरी बहन, तू रो मत | तू निष्कलंक है, महामंत्री निष्कलंक हैं...कोई पूर्वजन्म के पापकर्म उदय में आये हैं...इसलिए कलंक आ गया...परन्तु पापकर्मों का क्षय होने पर तुम दोनों निष्कलंक सिद्ध हो जाओगे। पापकर्मों का क्षय करने का पुरुषार्थ करो। इसलिए तो महामंत्री ने कहा है कि तुम यहाँ इस भूमिगृह में विधिपूर्वक श्री नवकार मंत्र की आराधना करो। मैं तुम्हें सहयोग दूंगी। हाँ, भयमुक्त होकर आराधना करना है। द्वेषमुक्त होकर अनुष्ठान करने है | थके बिना दिन-रात जाप-ध्यान करना है। राजा का डर नहीं रखना, राजा के प्रति गुस्सा नहीं करना और आराधना करते-करते थकना नहीं।' पथमिणी का हृदय : पथमिणी की निर्भय वाणी सुनकर लीलावती शांत हुई। उसने पथमिणी में धर्मश्रद्धा की उज्वल ज्योति के दर्शन किए। वह आश्वस्त हुई, स्वस्थ बनी और पथमिणी से नवकार मंत्र के विषय में ज्यादा सुनने को लालायित हुई। पथमिणी स्वयं निर्भय थी इसलिए लीलावती को निर्भय कर सकी। यदि वह स्वयं भयभीत होती तो? लीलावती को अपनी हवेली में रखती ही नहीं। पथमिणी के हृदय में दया और करुणा का सरोवर भरा हुआ था, अन्यथा लीलावती के प्रति द्वेष हो जाता । 'इस रानी की वजह से महामंत्री पर कलंक आया...' ऐसी कल्पना करती तो लीलावती के प्रति द्वेष आ जाता। यदि पथमिणी में दुःखी की रक्षा करने का उत्साह नहीं होता, उमंग नहीं होती तो 'वह जाने और उसका काम जानें...अपन को रानी की बात में क्यों उलझना? अपन तो शान्ति से जियो!' ऐसा विचार कर लेती। जिस प्रकार महामंत्री पेथड़शाह में सदधर्म की भूमिका सुदृढ़ थी, अभय, अद्वेष और अखेद से उनका चित्त निर्मल था, प्रसन्न था, वैसे पथमिणी भी भयरहित थी। धर्मानुष्ठान 'यथोदितं' तभी बनेगा जब भय-द्वेष और खेद से अपन मुक्त बनेंगे। ज्ञानी पुरुषों ने जिस प्रकार अनुष्ठान करने को कहा है उस प्रकार अपन क्यों नहीं कर रहे हैं? या तो कोई भय सताता है, या कोई द्वेष For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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