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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रवचन- ९ www.kobatirth.org गुणवान होना फिर भी सरल है पर गुणानुरागी होना काफी कठिन है। दूसरे मनुष्यों में गुण देखकर खुश होते हो न ? * जो जड़ या चेतन वस्तु मनुष्य के शुभ और शुद्ध भावों को जागृति में निमित्त बनते हैं, वे निमित्त व्यक्ति के लिए दर्शनीय, वंदनीय, पूजनीय होते हैं। ● तीव्र राग और द्वेष से एक भी पाप मत करो। पाप को पाप समझो ! पापत्याग का आदर्श रखो। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ● हृदय में पापाचरण का तीव्र दु:ख महसूस करो । ● मातापिता का बच्चों के साथ का अनुचित व्यवहार बहुधा बच्चों को धर्म से विमुख बना डालता है। उनके मन विद्रोही हो जाते हैं। इसलिए अच्छी भावना को अभिव्यक्ति भी मोठे व मधुर शब्दों में करो। संघर्ष के बिना शांति नहीं! शक्ति के बिना सिद्धि नहीं! प्रवचन : ९ वचनाद् यदनुष्ठानमविरुद्धाद् यथोदितम् । मैत्र्यादिभावसंयुक्तं तद्धर्म इति कीर्त्यते ।। याकिनीमहत्तरासुनु महान श्रुतधर आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी 'धर्मबिन्दु' ग्रंथ में धर्म का स्वरूप समझाते हुए फरमाते हैं : १११ For Private And Personal Use Only इस ग्रंथ में आचार्यश्री अनुष्ठानात्मक धर्म की परिभाषा दे रहे हैं, यह बात ध्यान में रखनी है। अनुष्ठानात्मक धर्म को व्यवहारधर्म भी कह सकते हैं, क्रियात्मक धर्म भी कह सकते हैं। अलबत्ता, क्रियात्मक धर्म भावशून्य नहीं होता । भावशून्य क्रिया अनुष्ठानधर्म नहीं बन सकता । हमारे जीवन की प्रत्येक क्रिया धर्म बन सकती है। यदि वह क्रिया- अनुष्ठान (१) अविरुद्ध वचन से प्रमाणित हो । (२) जिस प्रकार जो अनुष्ठान करने का विधान शास्त्रों में बताया गया है उस प्रकार वह अनुष्ठान किया जाय और (३) मैत्री - प्रमोद - - करुणा और माध्यस्थ्य-भाव से युक्त मनुष्य द्वारा अनुष्ठान किया जाय ।
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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