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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रवचन- ७ सिद्धर्षि 'ललितविस्तरा' पढ़ते हैं : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९४ जब इक्कीसवीं बार सिद्धर्षि अपने गुरुदेव के पास आए, गुरुदेव ने उनसे वाद-विवाद नहीं किया, तर्क का जाल नहीं बिछाया। अपने आसन पर एक धर्मग्रन्थ छोड़कर वे बाहर चले गए । सिद्धर्षि ने सोचा : 'गुरुदेव को वापस लौटने में एक घंटा लग जाएगा, क्या करूँ?' उन्होंने गुरुदेव के आसन पर पड़े हुए धर्मग्रन्थ को उठाया और पढ़ने लगे। उस ग्रन्थ का नाम था ‘ललितविस्तरा’। ‘नमोत्थुणं' सूत्र पर लिखी हुई विवेचना थी । लिखनेवाले कौन थे? ये थे महान आचार्य हरिभद्रसूरिजी ! जिन्होंने 'धर्मबिन्दु' ग्रंथ की रचना की है। सिद्धर्षि ‘ललितविस्तरा' को पढ़ते ही चले गये । गुरुदेव ने जान-बूझकर वापस लौटने में देरी की। उनका पक्का अनुमान था कि सिद्धर्षि 'ललितविस्तरा' को पढ़ेगा ही । ज्यों-ज्यों वे 'ललितविस्तरा' पढ़ते गए, धर्मतत्त्व की यथार्थता का बोध होता गया । 'जिनवचन' यथार्थता पर श्रद्धा दृढ़ होती गई । उस धर्मग्रंथ के सहारे उनकी बुद्धि को, मन को, अन्तरात्मा को समाधान प्राप्त होता गया। उन्होंने परम संतोष पाया । 'जिनवचन ही श्रेष्ठ है' - ऐसी प्रतीति हो गई। सिद्धर्षि जैन-दर्शन में स्थिर हुए : जब गुरुदेव वापस लौटे, सिद्धर्षि उनके चरणों में गिर गए, आँखों में से आँसू बहते चले। गुरुदेव ने सिद्धर्षि को गले लगाया। सिद्धर्षि ने कहा : 'गुरुदेव! आपने मुझ पर परम करुणा की है। अपार धैर्य से आपने मुझे सम्हाला है। आपका यह अनंत उपकार है मुझ पर...।' इसके बाद सिद्धर्षि ने जो ‘उपमितिभवप्रपंच कथा' लिखी है, विश्व का अद्वितीय उपनय-ग्रंथ है वह । आप पढ़ना कभी उस ग्रंथ को । For Private And Personal Use Only कुछ समझे इस घटना में से? 'ललितविस्तरा' ने सिद्धर्षि को जिनवचन के प्रति पूर्ण श्रद्धावान बना दिया । उनका जीवन धर्ममय बन गया । चरित्रधर्म की आराधना से उन्होंने जीवन सफल बना दिया । 'जिनवचन अविरुद्ध है- 'इसका निर्णय करना है तो सूक्ष्म बुद्धि चाहिए । यदि निर्णय नहीं करना है तो विश्वास कर लो कि जिनवचन अविरुद्ध ही होता है । जिनमें राग नहीं और द्वेष नहीं ऐसे वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा का वचन विरुद्ध हो ही नहीं सकता, ऐसा विश्वास कर लो। रागी और द्वेषी मनुष्य के वचन विश्वसनीय नहीं बन सकते । हाँ, अत्यंत महत्त्व की बात बताता हूँ यह ।
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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