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________________ कुन्दा-वदात-चल-चामर-चारु - शोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौत- कान्तम् । उद्यच्छ शाङ्क- शुचि-निर्झर-वारि-धार, मुच्चै - स्तटं सुर- गिरे-रिव-शात कौम्भम् ॥३०॥ अर्थ : हे प्रभुजी ! उदित होते हुए चन्द्रमा के समान निर्मल, झरने के पानी की धाराओं से शोभित, मेरु पर्वत के ऊँचे स्वर्णमय शिखर की भांति, मोगरा के पुष्प के समान उज्ज्वल हिलते हुए चामरों की शोभायुक्त चामर नृत्य-पूजा आपका कान्तिमय शरीर सुशोभित हो रहा है । ३० श्री पार्श्वपंचकल्याणक पूजा की ढाल बे बाजू चामरढाले, एक आगळ वज्र उलाळे । जई मेरु-धरी उत्संगे, इन्द्र चौसठ मळिया रंगे ॥ प्रभु पार्श्वनुं मुखडुं जोवा, भवोभवना पातिक खोवा... मंदिर की अथवा प्रभुजी की भक्ति के लिए लाए गए चामरों से पूज्य गुरु- भगवंत के समक्ष नृत्य नहीं करना चाहिए तथा वे चामरडुलाने भी नहीं चाहिए । स्नात्र - महोत्सव में राजा-रानी अथवा इन्द्र-इन्द्राणी को भी वे चामर नहीं डुलाने चाहिए। यदि चामरडुलाने अथवा नृत्य करने की आवश्यकता पड़े तो देव-द्रव्य में यथायोग्य रुपये-पैसे रखकर ही उसका उपयोग करना चाहिए । 74
SR No.009609
Book TitleSachitra Jina Pooja Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size2 MB
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