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________________ राज्यावस्था से केवलीवस्था तक का चिंतन करना। (३) रूपातीत अवस्था : प्रभुजी के अष्टकर्म नाश के द्वारा प्राप्त सिद्धावस्था का चिंतन करना। (नोट: प्रक्षाल तथा द्रव्य पूजा के द्वारा प्रभुजी की (१) जन्म-अवस्था : प्रक्षाल। (२) राज्य-अवस्था : चन्दन, पुष्प, अलंकार, आंगी (३)श्रमण-अवस्था : केश रहित मस्तक मुख देखकर भाव से तथा आठप्रातिहार्य द्वारा प्रभुजी की केवली अवस्था के भाव से तथा प्रभुजी को पर्यंकासन में काउस्सग्ग मुद्रा में देखते हुए सिद्धावस्था की भावना। ६. तीन दिशाओं के निरीक्षण त्याग स्वरूपदिशि त्याग त्रिक प्रभुजी के सम्मुख स्थापित दृष्टि से युक्त होकर तथा अपने पीछे, दाहिनी तथा बाई दिशा में देखने का त्याग करना। ७. प्रमार्जना त्रिक प्रभुजी की भावपूजा स्वरूप चैत्यवन्दन प्रारम्भ करने से पहले भूमिका तीन बार प्रमार्जन करना। ८. आलंबन त्रिक (१)सूत्र (वर्ण)आलंबन : अक्षर पद-सम्पदा व्यवस्थित बोलना। (19)
SR No.009609
Book TitleSachitra Jina Pooja Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size2 MB
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