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________________ तू वैसी!' अरे, प्रेम कहता था न? कहाँ गया प्रेम? मतलब, नहीं है यह प्रेम। जगत में कहीं प्रेम होता होगा? प्रेम का एक बाल जगत् ने देखा नहीं है। यह तो आसक्ति है। और जहाँ आसक्ति हो, वहाँ आक्षेप हुए बगैर रहते ही नहीं। वह आसक्ति का स्वभाव है। आसक्ति हो इसलिए आक्षेप हुआ ही करते हैं न कि, 'आप ऐसे हो और आप वैसे हो।''आप ऐसे और त ऐसी' ऐसा नहीं बोलते, नहीं? आपके गाँव में वहाँ नहीं बोलते या बोलते हैं? बोलते हैं! उस आसक्ति के कारण। पर जहाँ प्रेम है, वहाँ दोष ही नहीं दिखते हैं। संसार में इन झगड़ों के कारण ही आसक्ति होती है। इस संसार में झगड़ा तो आसक्ति का विटामिन है। झगड़ा नहीं हो तब तो वीतराग हुआ जाए। प्रेम तो वीतरागों का ही २८ ठेठ भगवान तक होता है, उन लोगों के पास प्रेम का लाइसन्स होता है। वे प्रेम से ही लोगों को सुखी कर देते हैं। वे प्रेम से ही बांधते हैं वापिस. छूट नहीं सकते। वह ठेठ ज्ञानी पुरुष के पास, ठेठ तीर्थंकर तक सभी प्रेमवाले, अलौकिक प्रेम ! जिसमें लौकिक नाम मात्र को भी नहीं होता। अति परिचय से अवज्ञा जहाँ बहुत प्रेम आए, वहीं अरुची होती है, वह मानव स्वभाव है। जिसके साथ प्रेम हो, और बीमार हों तब उसके साथ ही ऊब होती है। वह अच्छा नहीं लगता अपने को। 'आप जाओ यहाँ से, दूर बैठो', कहना पड़ता है और पति के साथ प्रेम की आशा रखनी ही नहीं और वे अपने पास प्रेम की आशा रखे तो वह मूरख है। यह तो हमें काम से काम! जैसे होटलवाले के वहाँ घर बसाने जाते हैं हम? चाय पीने के लिए जाते हैं तो पैसे देकर वापिस! इस तरह काम से काम कर लेना है हमें। प्रेम की लगनी में निभाए सभी भूलें घरवालों के साथ 'नफा हुआ' कब कहलाता है कि घरवालों को अपने ऊपर प्रेम आए। अपने बिना अच्छा नहीं लगे, कि कब आएँ, कब आएँ ऐसा लगे। लोग शादी करते हैं पर प्रेम नहीं, यह तो मात्र विषय आसक्ति है। प्रेम हो तो चाहे जितना एक दूसरे में विरोधाभास आए फिर भी प्रेम नहीं जाए। जहाँ प्रेम नहीं हो वह आसक्ति कहलाता है। आसक्ति मतलब संडास! प्रेम तो पहले होता था कि पति परदेश गया हो न, वह वापिस न आए तो पूरी ज़िन्दगी उसमें ही चित्त रहता, दूसरा कोई याद ही नहीं आता। आज तो दो साल पति न आए तो दूसरा पति कर ले! इसे प्रेम कैसे कहा जाए? यह तो संडास है, जैसे संडास बदलते हैं, वैसा ! जो गलन है, उसे संडास कहते हैं। प्रेम में तो अर्पणता होती है! प्रेम मतलब लगनी लगे वह। और वह सारे दिन याद आता रहे। शादी दो रूप में परिणमित होती है, किसी समय आबादी में जाती है तो किसी समय बरबादी में जाती है। प्रेम बहुत छलके तो वापिस बैठ जाता है। जो छलकता है, वह आसक्ति है। इसलिए जहाँ छलके, उससे दूर रहना। ये लडकियाँ पति पास करती हैं, ऐसे देखकर के पास करती हैं, फिर झगड़ती नहीं होगी? झगड़ती है? तब वह प्रेम कहलाए ही नहीं न ! प्रेम तो कायम का ही होता है। जब देखो तब वही प्रेम, वैसा ही दिखता है। उसका नाम प्रेम कहलाता है, और वहाँ आश्वासन लिया जाता है। यह तो हमें प्रेम आता हो और एक दिन वह रुठकर बैठी हो. तब किस काम का तेरा प्रेम! डालो गटर में यहाँ से। मुँह चढ़ाकर फिरती हो, उसके प्रेम का क्या करना है? आपको कैसा लगता है? प्रश्नकर्ता : ठीक है। दादाश्री : कभी भी मुँह न बिगाड़े, वैसा प्रेम होना चाहिए। वह प्रेम हमारे पास मिलता है। पति झिड़के तब भी प्रेम कम-ज्यादा नहीं हो, वैसा प्रेम चाहिए। हीरे के टोप्स लाकर दें, उस घड़ी प्रेम बढ़ जाता है, वह भी आसक्ति। इसलिए यह जगत् आसक्ति से चल रहा है। प्रेम, वह तो ज्ञानी पुरुष से
SR No.009600
Book TitlePrem
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages39
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size232 KB
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