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________________ पाप-पुण्य दादाश्री : हाँ, वह व्यवहार शुरू ही हो जाता है। प्रश्नकर्ता : धर्म में दो नंबर का पैसा है, वह खर्च होता है अभी के जमाने में, तो उससे लोगों को पुण्योपार्जन होता है क्या? दादाश्री : अवश्य होता है न! उसने त्याग किया न उतना! अपने पास आए हुए का त्याग किया न! पर उसमें हेतु के अनुसार फिर वह पुण्य वैसा हो जाता है हेतुवाला! ये पैसे दिए, वह एक ही वस्तु नहीं देखी जाती। पैसों का त्याग किया वह निर्विवाद है। बाकी पैसा कहाँ से आया, हेतु क्या है, ये सारा प्लस-माइनस होते-होते जो बाकी रहेगा, वह उसका। उसका हेतु क्या है कि सरकार ले जाएगी, उसके बजाय इसमें डाल दो न! शास्त्र वांचन, पाप क्षय करते हैं? प्रश्नकर्ता : सत् शास्त्रों के पठन से पापों का क्षय नहीं हो सकता? दादाश्री : नहीं, उससे पुण्य ज़रूर बँधता है। पापों का क्षय नहीं होता। दूसरा नया पुण्य बँधता है, वह पुण्यानुबंधी पुण्य कहलाता है। सत् शास्त्र का अभ्यास करते हैं उसमें से स्वाध्याय होता है, उससे चित्त की एकाग्रता, मन की एकाग्रता बहुत सुंदर हो जाती है। पाप धुलें, प्रतिक्रमण से प्रश्नकर्ता : पाप धोना आता हो तो? दादाश्री : ऐसा धोना नहीं आता। ज्ञानी पुरुष जब तक रास्ता नहीं दिखाएँ तब तक पाप धोना नहीं आता है। पाप धोना मतलब क्या? कि प्रतिक्रमण करना। अतिक्रमण अर्थात् पाप कहलाता है। व्यवहार से बाहर कोई भी क्रिया की वह पाप कहलाता है, अतिक्रमण कहलाता है। इसलिए उसका प्रतिक्रमण करना पड़ता है। ताकि फिर वे सभी पाप धुल जाएँ, नहीं तो पाप धुलते नहीं। नहीं होता कभी पछतावा बनावटी दादाश्री : इस तरह के आप कितने प्रतिक्रमण करते हो? पाप-पुण्य प्रश्नकर्ता : किसीको दुःख हो जाए तो तुरन्त पछतावा करता हूँ। दादाश्री : पछतावा तो जो वेदना होती है वह है। पछतावा प्रतिक्रमण नहीं कहलाता। फिर भी वह अच्छा है। प्रश्नकर्ता : एक ओर पाप करता रहे और एक ओर पछतावा करता रहे। ऐसे तो चलता ही रहेगा। दादाश्री : वैसा नहीं होता। जो व्यक्ति पाप करे और वह यदि पछतावा करे तो वह बनावटी पछतावा कर ही नहीं सकता, और सच्चा ही पछतावा होता है। पछतावा सच्चा होता है, इसलिए उसके बाद एक प्याज़ की परत निकल जाती है। फिर भी प्याज़ तो पूरी की पूरी ही दिखती है वापिस। फिर वापिस दूसरी परत हटती है, पछतावा कभी भी बेकार नहीं जाता है। हर एक धर्म ने पछतावा ही करना सिखाया है। क्रिश्चियनों के वहाँ भी पछतावा ही करने को कहा है। पापों का प्रायश्चित किस तरह? प्रश्नकर्ता : अपने किए हुए पाप भगवान के मंदिर में जाकर हर रविवार को कबूल कर लिए हों तो फिर पाप माफ़ हो जाएँगे न? दादाश्री : इस तरह यदि पाप धुल जाते तो कोई बीमार-वीमार होता ही नहीं न? फिर तो कोई दुःख होता ही नहीं न? पर ये तो अपार दुःख पड़ते हैं। माफ़ी माँगने का अर्थ क्या है कि आप माफ़ी माँगो तो आपके पाप का मूल जल जाता है। इसलिए फिर वह पनपता नहीं है, पर उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा न! प्रश्नकर्ता : कई जड़ें तो फिर से वापिस निकलती हैं। दादाश्री : ठीक से जला नहीं हो तो फिर से निकलता रहेगा। बाक़ी, मूल चाहे जितना जल गया हो पर फल तो भुगतने ही पड़ते हैं। भगवान को भी भुगतने पड़े थे! कृष्ण भगवान को भी यहाँ (पैर में) तीर लगा था। उसमें कुछ नहीं हो सकता। मुझे भी भुगतना पड़ता है! हर एक धर्म में माफ़ी (क्षमा) का स्थान है। क्रिश्चियन, मुस्लिम,
SR No.009596
Book TitlePap Punya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size268 KB
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