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________________ १२८ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! १२७ हैं, वह अपने दोष के कारण दिखते हैं। और दोषित दिखते हैं इसीलिए ही कषाय करते हैं। नहीं तो कषाय ही न करे न? दोषित दिखते हैं, इसीलिए गलत ही दिखता है। अंधा अंधे से टकराता है, उसके जैसी बात है यह। अंधे आदमी आमने-सामने टकराते हैं वह हम जानें और दर रहकर कहें कि यह अंधा लगता है! इतना अधिक टकराते हैं उसका क्या कारण है? दिखता नहीं है। बाकी जगत् में कोई जीव दोषित है ही नहीं। यह तो सब जो दोष दिखता है, वह आपका है। इसलिए कषाय खड़े रहे हैं। दूसरों के दोष दिखाए वह कषाय भाव का पर्दा है। इसीलिए दूसरों के दोष दिखते हैं। सींग जैसे कषाय भाव होते हैं, वे मोड़ने से मुड़ते नहीं। अब क्रोध-मान-माया-लोभ 'कम करो, कम करो' कहते हैं। वे कम कब होंगे? वे कम होते होंगे? वास्तविकता का ज्ञान हो कि कोई दोषित है ही नहीं, तब उन क्रोध-मान-माया-लोभ को कम करने का ही नहीं रहा न! दोषित दिखता है इसीलिए फिर प्रतिक्रमण करना पड़ेगा न? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : कभी पिछले क्रोध-मान-माया-लोभ के कारण दोषित दिखें तो प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। ताकि वे फिर क्रोध-मान-माया-लोभ चले जाते हैं। वहाँ किसे डाँटोगे? अभी पहाड़ पर से एक ढेला लुढकता लुढ़कता आया और सिर में लगा और खून निकला, उस घड़ी आप किसे गाली देते हो? गुस्सा किस पर होते हो? ____ पहाड़ पर से इतना बड़ा पत्थर गिरा हो पर पहले देख लेता है कि किसीने लुढ़काया या क्या? कोई न दिखे या फिर बन्दर ने लढकाया हो, फिर भी कुछ नहीं। बहुत हुआ तो उसे भगा देता है। उसे क्या गालियाँ देता है? उसका नाम नहीं, निशान नहीं, कहाँ दावा करे? नामवाले पर दावा कर सकते हैं, पर बन्दरभाई का तो नाम ही नहीं, कुछ नहीं, कैसे दावा निजदोष दर्शन से... निर्दोष! करेगा? गालियाँ किस तरह देगा?! ऐसे तो मूढ़मार खाता है, पर घर में एक ज़रा-सा इतना ऊँचानीचा हो गया हो तो उछल-कूद कर देता है ! फिर भी भगवान की भाषा में सब निर्दोष हैं। क्योंकि नींद में करते हैं, उसमें उसका क्या दोष? नींद में कोई कहे, 'आपने मेरा यह परा घर जला दिया और सब मेरा नुकसान कर डाला?' अब नींद में बोले, उस पर हम किस तरह दोष मढ़ें? नहीं कोई दुश्मन अब... प्रश्नकर्ता : जगत् निर्दोष किस अर्थ में है? दादाश्री : खुल्ले अर्थ में! इस जगत् के लोग नहीं कहते कि, 'यह हमारा दुश्मन है, मुझे इसके साथ अच्छा नहीं लगता, मेरी सास खराब है।' परंतु मुझे तो सब निर्दोष दिखते हैं। प्रश्नकर्ता : पर आप तो कहते हैं आपको कोई खराब दिखता ही नहीं। दादाश्री : कोई खराब है ही कहाँ? इसलिए खराब क्या देखना? हमें सामनेवाले का सामान देखना है ! डिब्बी का क्या करना है ! डिब्बी तो पीतल की हो या तांबे की हो या लोहे की भी हो! दुश्मन दिखे तब दुःख होता है न, पर दुश्मन ही नहीं देखें न? अभी तो आपकी दृष्टि ऐसी है। चमड़े की आँख है, इसलिए यह दुश्मन, यह अच्छा नहीं है और यह अच्छा है कहोगे। यह अच्छा है, पर दो-चार वर्षों बाद वापिस उसे ही खराब कहते हो। कहते हैं या नहीं कहते? प्रश्नकर्ता : ज़रूर कहते हैं। दादाश्री : और मुझे इस वर्ल्ड में कोई दुश्मन नहीं दिखता। मुझे निर्दोष ही दिखते हैं सब, क्योंकि दृष्टि निर्मल हो गई है। इस चमड़े की आँख से नहीं चलता, दिव्यचक्षु चाहिए।
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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