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________________ ८६ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! स्थूल जाना है, अभी तो उसका सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम होगा, तब प्रवर्तन में आएगा। निजदोष दर्शन से... निर्दोष! हो फिर भी हो जाता है। प्रश्नकर्ता : हम लोगों की दृष्टि अभी भी निर्दोष क्यों नहीं होती? दादाश्री : दृष्टि निर्दोष ही है। प्रश्नकर्ता : निर्दोष ही दिखना चाहिए, ऐसा भाव है, पर फिर भी दूसरों के दोष दिखते हैं। दादाश्री : दोष दिखते हैं, वे जिसे दिखते हैं न, उसे हम देखते' हैं, बस। बाकी, जो माल भरा हुआ है, वैसा ही निकलेगा न? प्रश्नकर्ता : पर उसका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा न? दादाश्री : प्रतिक्रमण करना ही पड़ेगा न! किसलिए ऐसा माल भरा था?! श्रद्धा से शुरू, वर्तन से पूर्ण... यानी यह अपना ज्ञान शुद्ध ज्ञान है। समझ भी शुद्ध है। जगत् सारा निर्दोष दिखना चाहिए। पहले निर्दोष श्रद्धा में आया, अब धीरे-धीरे समझ में आएगा, ज्ञान में आएगा। खुद शुद्धात्मा ही है न! जेब काटे तब भी निर्दोष दिखना चाहिए। जो जान लिया, वह फिर अपनी श्रद्धा में पूरा-पूरा आएगा, उसके बाद वर्तन में आएगा। मतलब कि पूरा-परा श्रद्धा में अभी आया नहीं है। जैसे-जैसे श्रद्धा में आता जाएगा, वैसे-वैसे वर्तन में आता जाएगा। वह सारा प्रयोग धीरे-धीरे होगा। ऐसे एकदम से तो नहीं हो सकता कुछ! पर जान लें उसके बाद वह प्रयोग में आएगा न?! प्रश्नकर्ता : यह जाना तो बहुत समय से है ही न? दादाश्री : ना! वह जाना नहीं कहलाता। जान लिया उसे कहते हैं कि प्रवर्तन में आए ही। अर्थात् पूर्ण रूप से जाना नहीं है। यह तो स्थूल जाना। जानने का फल क्या? तुरन्त ही प्रवर्तन में आए। मतलब कि यह नहीं छोड़ना कभी सत्संग 'यह' इस सत्संग में तो मार पड़ती हो, फिर भी मार खाकर भी यह सत्संग छोड़ना मत। मरना पड़े तो भी ऐसे सत्संग में मर जाना, पर बाहर नहीं मरना। क्योंकि जिस हेतु के लिए मरा, वह हेतु उसका जोइन्ट हो जाता है। यहाँ कोई मारता नहीं न? मारे तो चला जाएगा? यह जगत् नियम सहित चल रहा है। अब इसमें किसीके दोष देखें तो क्या हो? किसीका दोष होगा क्या? प्रश्नकर्ता : किसीका दोष नहीं होता, पर मुझे ऐसा दिखता है। दादाश्री: जो दिखता है, वह दर्शन गलत होता है। हम एक चीज़ यहाँ से देखें, वह हो घोड़ा और बैल जैसा दिखे, तो हम, 'बैल है', ऐसा बोलते हैं। पर वहाँ जाकर पता लगाएँ तो पता चले कि घोडा है, तब हम नहीं समझ जाएँ कि हमारी आँखें वीक(कमज़ोर) हो गई हैं! इसलिए दुबारा, जो दिखे, वैसा पक्का ही है, नहीं मानेंगे। प्रश्नकर्ता : आपके विज़न( दृष्टि) से किसीका दोष नहीं है, फिर भी मुझे ऐसा क्यों दिखता है? दादाश्री : तुझे दिखता है, उसमें तू ज्ञान का उपयोग नहीं करता है न! अज्ञान को चलते रहने देता है। ये दादा के चश्मे पहने तो दोष नहीं दिखेंगे। पर तू अपने चश्मे से ही देखा करता है। नहीं तो इस जगत् में कोई दोषित है ही नहीं! यह मेरी सबसे गहरी खोज है। मोड़नी, दोष देखने की शक्ति को किसीका दोष ही देखना नहीं है। तब से ही सयाना हो जाता है। दोष वास्तव में किसीका है ही नहीं। यह तो बिना काम के मजिस्ट्रेट बन जाता है। खुद के दोष पूरे दिखते नहीं हैं और दूसरों के देखने को तैयार
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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