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________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! 'मैं क्या करूँ?' प्रकृति जबरदस्ती करवाती है और कहता है कि 'मैंने किया!' और इसीलिए तो वह अगले जन्म के बीज डालता है। यह तो उदयकर्म से होता है और उसका खुद गर्व लेता है। यह उदयकर्म का गर्व ले, उसे साधु किस तरह कहें? साधु महाराजों की एक भूल कि वे जो उदयकर्म का गर्व लेते हैं। यदि भूल होती हो और वह एक भूल ही यदि मिटा दें तो काम ही हो जाए। उदयकर्म का गर्व महाराज को है या नहीं उतना ही देखना होता है, दूसरा बाहर का कुछ भी देखना नहीं होता। उनमें दूसरे कषाय होंगे तो चलेगा, पर उदयकर्म का गर्व नहीं होना चाहिए। बस, उतना ही देखना होता है। हर एक जीव अनंत दोष का भाजन है। कृपालुदेव ने कहा, 'मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ करुणाल', ऐसा बोलना। ___ सबसे बड़ा दोष भगवान ने संसारी दोष को दोष नहीं माना है। 'तेरे स्वरूप का अज्ञान' वही सबसे बड़ा दोष है। यह तो 'मैं चंदूभाई हूँ', तब तक दूसरे दोष भी खड़े हैं और एक बार 'खुद के स्वरूप का भान' हो तो फिर अन्य दोष चलते बनेंगे! यह तो खुद की एक भूल भी दिखती नहीं है। हम कहें, 'सेठ आपमें कोई दोष तो होगा न?' तब कहे 'हाँ, थोड़ा, ज़रा-सा क्रोध है और थोड़ा सा लोभ है। दूसरा कोई दोष नहीं हैं।' यह तू वहाँ अनंत बोलता है और यहाँ फिर... 'दो' ही हैं, ऐसा मँह से बोलता है! हम पूछे, तब वह समझता है कि आबरू चली जाएगी। अरे! आबरू थी ही कहाँ पर? आबरूदार तो किसका नाम कि मनुष्य में से फिर चार पैरवाला न बने, उसका नाम आबरूदार। अरे! इतना ज्यादा पक्का मनुष्य तू! भगवान के पास 'मैं अनंत दोष का भाजन हूँ' ऐसा बोलता है और यहाँ बाहर दो ही भूलें हैं, ऐसा बोलता है!! हम कहें, 'भगवान के पास बोलता था न?' तब कहे, 'वह तो वहाँ बोलना होता है, यहाँ नहीं।' इससे तो तरबूज अच्छे। उनमें इतने दोष नहीं निजदोष दर्शन से... निर्दोष! होते। अरे! भगवान के पास अलग बोलता है और यहाँ अलग बोलता है? अभी तो कितने चक्कर काटेगा तू? जरा क्रोध है और थोड़ा लोभ है, दो भूलों का मालिक! भगवान यहाँ विचरते थे न, तब उनके पास पाँच लाख भलें थीं और यह दो भलों का मालिक! भगवान देहधारी थे न, तब तक दो-पाँच लाख भूलें पड़ी हुई थीं और यह भूल बिना का(!) यदि खुद के दोष दिखें नहीं, तो कभी भी तरने की बात करनी नहीं, ऐसी आशा भी नहीं रखनी चाहिए। मनुष्य मात्र अनंत भूल का भाजन है और यदि उसे अपनी भूल नहीं दिखती तो इतना ही है कि उसे भयंकर आवरण बरतता है। यह तो भूल दिखती ही नहीं है। अब भूलें दिखती हैं थोड़ी बहुत? भूलें दिखती हैं या नहीं दिखती? प्रश्नकर्ता : अब दिखती हैं। दादाश्री : भूल का स्वभाव कैसा है कि दिखें, वे चली जाती हैं और फिर दूसरे दिन फिर उतनी ही आती हैं। निरा भलों का ही भंडार है। यह तो भंडार ही भूलों का है! फिर डाँट देता है और डाँटने के बाद निकाल करना भी नहीं आता। अरे! डाँट लेता है? अब डाँटने के बाद उसका निकाल तो कर! जैसे थाली हमने बिगाड़ी हो तो धोना नहीं आता फिर? लेकिन यह तो डाँट दिया, फिर उसका निकाल भी करना नहीं आता। फिर मुँह चढ़ाकर घूमता रहता है! अरे घनचक्कर! मुँह किसलिए चढ़ाता है फिर? निरा भूलों का भंडार, इसलिए जीव हो जाता है न फिर? नहीं तो खुद शिव है। जीव-शिव का भेद क्यों लगता है? यह तो भूल को लेकर है। यह भूल मिटे तो हल आए। दीठा नहीं निजदोष तो... पहला वाक्य कहता है कि 'मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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