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________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! हमें, हमारा कर्म बँधे नहीं उस तरह रहना चाहिए, इस दुनिया से दूर रहना चाहिए। ये कर्म बाँधे थे, इसलिए तो ये मिले हैं। ये हमारे घर में कौन इकट्ठे हए हैं? कर्म के हिसाब बंधे थे. वे ही सब इकट्ठे हुए हैं और फिर हमें बाँधकर मारते भी हैं। हमने नक्की किया हो कि मुझे उसके साथ बोलना नहीं है, तो भी सामनेवाला मुँह में उँगलियाँ डालकर बार-बार बलवाता है। अरे! उँगलियाँ डालकर क्यों बलवाता है? इसका नाम बैर! सारे पूर्व के बैर! किसी जगह देखा हुआ है क्या? प्रश्नकर्ता : सब जगह वही दिखता है न! दादाश्री : इसलिए कहता हूँ न कि खिसक जाओ और मेरे पास आओ। यह मैंने जो पाया है, मैं वह आपको दे दूं, आपका काम हो जाएगा और छुटकारा हो जाएगा। बाक़ी, छुटकारा होनेवाला नहीं है। हम किसीका दोष नहीं निकालते, पर नोंध (नोट) करते हैं कि देखो यह दुनिया क्या है? हर तरह से यह दुनिया मैंने देखी हुई है, बहुत तरह से देखी हुई है। कोई दोषित दिखता है, वह अभी तक अपनी भूल है। कभी न कभी तो, निर्दोष देखना पड़ेगा न? हमारे हिसाब से ही है यह सब। इतना थोड़े में समझ जाओ न, तो भी सब बहुत काम आएगा। मुझे जगत् निर्दोष दिखता है। आपको ऐसी दृष्टि आएगी, तब यह पज़ल सॉल्व हो जाएगा। मैं आपको ऐसा उजाला दूंगा और इतने पाप धो डालूँगा कि जिससे आपका उजाला रहे और आपको निर्दोष दिखता जाए। और साथ-साथ पाँच आज्ञा दूँगा। उन पाँच आज्ञा में रहोगे तो वह जो दिया हुआ ज्ञान है, उसे जरा भी फ्रेक्चर नहीं होने देंगी। तब से हुआ समकित! खुद का दोष दिखे, तब से समकित हुआ कहलाता है। खुद का दोष दिखे, तब से समझना कि खुद जागृत हुआ है। नहीं तो सब नींद में ही चल रहा है। दोष खतम हुए या नहीं हुए, उसकी बहुत चिंता करने जैसी नहीं है, पर जागृति की मुख्य जरूरत है। जागृति होने के बाद फिर निजदोष दर्शन से... निर्दोष! नये दोष खड़े नहीं होते हैं और पुराने दोष होते हैं, वे निकलते रहते हैं। हमें उन दोषों को देखना है कि किस तरह से दोष होते हैं। जितने दोष दिखें, उतने विदाई लेने लगते हैं। जो चिकने होते हैं, वे दो दिन, तीन दिन, पाँच दिन, महीने या साल में भी वे दिखें तो फिर जाने ही लगते हैं, अरे! भागने ही लगते हैं। घर में यदि चोर घुसा हो तो वह कब तक बैठा रहता है? मालिक जानता नहीं हो, तब तक। मालिक यदि जाने तो तुरन्त ही चोर भागने लगेगा। अंत में तो वे प्राकृत गुण प्रश्नकर्ता : दादा, हमें दोष नहीं देखने, पर गुण देखने हैं? दादाश्री : नहीं। दोष भी नहीं देखने हैं और गुण भी नहीं देखने हैं। ये दिखते हैं, वे गुण तो सारे प्राकृत गण हैं। उनमें से एक भी टिकाऊ नहीं है। दानवीर हो, वह पाँच साल से लेकर पचास साल तक, उसी गुण में रहा हो, लेकिन सन्निपात हो, तब वह गुण बदल जाता है। ये गण तो वात, पित्त और कफ से रहे हैं और उन तीनों में बिगाड़ हो तो सन्निपात होता है ! ऐसे गुण तो अनंत जन्मों से इकट्ठे किए हैं। फिर भी, ऐसे प्राकृत दोष इकट्ठे नहीं करने चाहिए। प्राकृत सद्गुण प्राप्त करे, तो कभी आत्मा प्राप्त कर सकेगा। दया, शांति, ये सब गुण हों, वहाँ भी यदि वात. पित्त और कफ बिगड़े तो वह सबको मारता रहता है। ये तो प्रकृति के लक्षण कहलाते हैं। ऐसे गुणों से पुण्यानुबंधी पुण्य बँधते हैं। उनसे किसी जन्म में 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाएँ, तो काम हो जाए। पर ऐसे गुणों में बैठे रहना नहीं है। क्योंकि कब उनमें परिवर्तन हो जाए, वह कह नहीं सकते। वे खुद के शुद्धात्मा के गुण नहीं हैं। ये तो प्राकृत गुण हैं। उन्हें तो हम लटू कहते हैं। सारा जगत् प्राकृत गुणों में ही है। सारा जगत् लट्ट छाप है। यह तो सामयिक-प्रतिक्रमण प्रकृति करवाती है और खुद के सिर पर लेता है और कहता है कि मैंने किया। तो भगवान से पूछे तो भगवान कहें कि, 'यह तो तू कुछ भी करता नहीं हैं।' किसी दिन पैर दु:खता हो तो कहेगा,
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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