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________________ क्रोध क्रोध प्रश्नकर्ता : उदाहरण देकर समझाइए तो अधिक स्पष्टता होगी। दादाश्री : हमारे लोग नहीं कहते कि "क्यों बहुत गुस्सा हो गये?" तब कहे, "मुझे कुछ सूझता नहीं, इसलिए गुस्सा हो गया।" हाँ, कुछ सूझ नहीं पड़ने पर मनुष्य गुस्सा कर बैठता है। जिसे सूझ पड़े वह गुस्सा करेगा? गुस्सा करना यानी क्या? वह गुस्सा पहला इनाम किसे देगा? जहाँ निकलेगा वहाँ पहले खुद को जलायेगा, फिर दूसरे को जलायेगा। क्रोधाग्नि जलायें स्व-पर को दादाश्री : उसे लोग क्या कहेंगे? ये बच्चे भी उसे कहेंगे कि, "ये तो चिड़चिड़े ही हैं।" चिढ़ वह मूर्खता है, फूलिशनेस है। चिढ़ कमजोरी कहलाती है। बच्चों से हम पूछे कि, "तुम्हारे पापाजी कैसे है?" तब वे भी बतायेंगे कि. "वे तो बहत चिडचिड़े है।" बोलिए, अब आबरू बढ़ी या घटी? यह कमजोरी नहीं होनी चाहिए। अर्थात जहाँ सात्विकता होगी, वहाँ कमजोरी नहीं होगी। घर के छोटे बच्चों को पूछे कि, "तुम्हारे घर में पहला नंबर किसका?" तब बच्चे खोजबीन करें कि मेरी माँ चिढ़ती नहीं है, इसलिए सब से अच्छी वह है। पहला नंबर उसका। फिर दूसरा, तीसरा करते करते पापा का नंबर आखिर में आता है!!! ऐसा क्यों? क्योंकि वे चिढ़ते हैं। चिड़चिड़े है इसलिए। मैं कहूँ कि, "पापा पैसे लाकर खर्च करते हैं, फिर भी उसका आखिरी नंबर?" तब वे 'हाँ' कहते हैं। बोलिए अब! मेहनतमज़दरी करें, खिलायें, पैसे लाकर दें, फिर भी आखिरी नंबर आपका ही आता है न? क्रोध यानी अंधापन प्रश्नकर्ता : मनुष्य को क्रोध आने का सामान्य रूप से मुख्य कारण क्या हो सकता है? दादाश्री : दिखना बंद हो जाता है इसलिए। मनुष्य दीवार से कब टकरायेगा? जब उसे दीवार नज़र नहीं आती, तब टकरायेगा न? इस प्रकार अंदर नज़र आना बंद हो जाता है, इसलिए मनुष्य से क्रोध हो जाता है। आगे का रास्ता नहीं मिलने पर क्रोध हो जाता है। सूझ नहीं पड़ने पर क्रोध क्रोध कब आता है ? तब कहें, दर्शन अटकता है, इसलिए ज्ञान अटकता है, इसलिए क्रोध उत्पन्न होता है। मान भी ऐसा है। दर्शन अटकता है, इसलिए ज्ञान अटकता है, इसलिए मान खड़ा हो जाता है। क्रोध यानी खुद अपने घर को आग लगाना। खुद के घर में घास भरी हो और दियासलाई जलाना, उसका नाम क्रोध । अर्थात पहले खुद जले और बाद में पड़ौसी को जलाये। घास के बड़े-बड़े गळूर किसी के खेत में इकट्ठे किये हो, पर एक ही दियासलाई डालने पर क्या होगा? प्रश्नकर्ता : जल जायेगा। दादाश्री : ऐसे ही एक बार क्रोध करने पर, दो साल में जो कमाई की हो वह मिट्टी में मिल जाती है। क्रोध यानी प्रकट अग्नि। उसे खुद पता नहीं चलता कि मैं ने मिट्टी में मिला दिया। क्योंकि बाहर की चीजों में कोई कमी नहीं होती, पर भीतर सब ख़तम हो जाता है। अगले जन्म की सब तैयारियाँ होगी न, उसमें से थोड़ा खर्च हो जाता है। और फिर ज्यादा खर्च हो जाने पर क्या होगा? यहाँ मनुष्य था तब रोटियाँ खाता था। फिर वहाँ चारा खाने (जानवर में) जाना पडे। यह रोटियाँ छोड़कर चारा खाने जाना पड़े, यह ठीक कहलायेगा? वर्ल्ड (संसार) में कोई मनुष्य क्रोध को नहीं जीत सकता। क्रोध के दो रूप है, एक कुढ़न के रूप में (बाहर दिखाई देनेवाला) और दूसरा, बेचैनी के रूप में (जो भीतर होता है)। लोग जो क्रोध को जीतते है वे
SR No.009590
Book TitleKrodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size268 KB
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