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________________ ५. समझ से सोहे गृहसंसार ११७ बोलते हैं कि ये मेरी लौकियाँ हैं। यह बुद्धि का दुरुपयोग किया, बुद्धि पर निर्भर रही इसलिए मनुष्य जाति निराश्रित कहलाई। दूसरे कोई जीव बुद्धि पर निर्भर नहीं हैं। इसलिए वे सब आश्रित कहलाते हैं। आश्रित को दु:ख नहीं होता। इन्हें ही सारा दुःख होता है। ये विकल्पी सुखों के लिए भटका करते हैं. पर पत्नी सामना करे तब उस सुख का पता चलता है कि यह संसार भोगने जैसा नहीं है। पर यह तो तुरन्त ही मूर्च्छित हो जाता है। मोह का इतना सारा मार खाता है, उसका भान भी रहता नहीं है। बीवी रूठी हुई हो तब तक 'या अल्लाह परवरदिगार' करता है और बीवी बोलने आई तब फिर मियाँभाई तैयार! फिर अल्लाह और बाकी सब एक तरफ रह जाता है! कितनी उलझन! ऐसे कोई दु:ख मिट जानेवाले हैं? घड़ीभर तू अल्लाह के पास जाए तो क्या दु:ख मिट जाएगा? जितना समय वहाँ रहेगा उतना समय अंदर सुलगता बंद हो जाएगा जरा, पर फिर वापिस कायम की सिगड़ी सुलगा ही करेगी। निरंतर प्रकट अग्नि कहलाती है, घड़ीभर भी सुख नहीं होता! जब तक शद्धात्मा स्वरूप प्राप्त नहीं होता, खुद की दृष्टि में 'मैं शुद्ध स्वरूप हूँ', ऐसा भान नहीं होता तब तक सिगड़ी सुलगा ही करेगी। शादी में भी बेटी का ब्याह करवा रहे हों तब भी अंदर सुलग रहा होता है ! निरंतर संताप रहा करता है। संसार यानी क्या? जंजाल। यह देह लिपटा है, वह भी जंजाल है! जंजाल को तो भला शौक होता होगा? उसका शौक होता है, वह भी आश्चर्य है न! मछली पकड़ने का जाल अलग और यह जाल अलग! मछली के जाल में से काट-कूटकर निकला भी जा सकता है, पर इसमें से निकला ही नहीं जा सकता। ठेठ अरथी निकलती है तब निकला जाता है। .....उसे तो 'लटकती सलाम!' इसमें सुख नहीं, वह समझना तो पड़ेगा न? भाई अपमान करें, मेमसाहब भी अपमान करें, बच्चे अपमान करें! यह तो सारा नाटकीय व्यवहार है, बाकी इनमें से कोई साथ में थोडे ही आनेवाला हैं? ११८ क्लेश रहित जीवन आप खुद शुद्धात्मा और ये सब व्यवहार उपलक है यानी कि सुपरफ्लुअस करने के हैं। खुद 'होम डिपार्टमेन्ट' में रहना है और 'फ़ॉरेन' में 'सुपरफ्लूअस' रहना है। 'सुपरफ्लअस' यानी तन्मयाकार वृत्ति नहीं, ड्रामेटिक वह । खाली यह 'ड्रामा' ही खेलना है। 'ड्रामा' में नुकसान हुआ तब भी हँसना और नफा हुआ तब भी हँसना। 'ड्रामा' में दिखावा भी करना पड़ता है, नुकसान हुआ हो तो उसका दिखावा करना पड़ता है। मुँह पर बोलते भी हैं कि बहुत नुकसान हुआ, पर भीतर तन्मयाकार नहीं हों। हमें 'लटकती सलाम' रखनी है। कई लोग नहीं कहते कि भाई, मुझे तो इसके साथ लटकती सलाम' जैसा संबंध है। उसी तरह सारे जगत् के साथ रहना है। जिसे 'लटकती सलाम' पूरे जगत् के साथ आ गई, वह ज्ञानी हो गया। इस देह के साथ भी लटकती सलाम'! हम निरंतर सभी के साथ 'लटकती सलाम' रखते हैं, फिर भी सब कहते हैं कि, 'आप हम पर बहुत अच्छा भाव रखते हैं।' मैं व्यवहार सभी करता हूँ पर आत्मा में रहकर। प्रश्नकर्ता : बहुत बार बड़ा लड़ाई-झगड़ा घर में हो जाता है। तब क्या करें? दादाश्री : समझदार मनुष्य हो न तो लाख रुपये दें तब भी लड़ाईझगड़ा नहीं करे, और यह तो बिना पैसे लड़ाई-झगड़ा करता है, तो वह अनाड़ी नहीं तो क्या है? भगवान महावीर को कर्म खपाने के लिए साठ मील चलकर अनार्य क्षेत्र में जाना पड़ा था, और आज के लोग पुण्यवान इसलिए घर बैठे अनार्य क्षेत्र है! कैसे धन्य भाग्य! यह तो अत्यंत लाभदायक है कर्म खपाने के लिए, यदि सीधा रहे तो। एक घंटे का गुनाह, दंड ज़िन्दगी पूरी एक घंटे नौकर को, बच्चे को या पत्नी को झिड़का हो-धमकाया हो, तो वह फिर पति बनकर या सास बनकर आपको सारी जिन्दगी कुचलते रहेंगे! न्याय तो चाहिए कि नहीं चाहिए? यह भुगतने का है। आप किसी को दु:ख दोगे तो दु:ख आपके लिए पूरी ज़िन्दगी का आएगा। एक ही घंटा दु:ख दो तो उसका फल पूरी ज़िन्दगी मिलेगा। फिर शोर मचाते
SR No.009589
Book TitleKlesh Rahit Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size51 KB
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