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________________ १४ क्लेश रहित जीवन कि भाता है, तो वह गलत तरह से मन को मनाना नहीं हुआ? १. जीवन जीने की कला १३ खड़ा रहा है ! ये हिन्दू तो घर में बैर बाँधते हैं और इन मुस्लिमों को देखो तो वे घर में बैर नहीं बाँधते हैं, बाहर झगड़ा कर आते हैं। वे जानते हैं कि हमें तो इसी के इसी कमरे में और इसी के साथ ही रात को पड़े रहना है, वहाँ झगड़ा करना कैसे पुसाए? जीवन जीने की कला क्या है कि संसार में बैर न बंधे और छूट जाएँ। तो भाग तो ये साधु-संन्यासी भी जाते ही हैं न? भाग नहीं जाना चाहिए। यह तो जीवन संग्राम है, जन्म से ही संग्राम शुरू! वहाँ लोग मौज-मज़े में पड़ गए हैं! घर के सभी लोगों के साथ, आसपास. ऑफिस में सब लोगों के साथ 'समभाव से निकाल' करना। घर में नहीं भाता हो ऐसा भोजन थाली में आया, वहाँ समभाव से निकाल करना। किसी को परेशान मत करना, जो थाली में आए वह खाना। जो सामने आया वह संयोग है और भगवान ने कहा है कि संयोग को धक्का मारेगा तो वह धक्का तुझे लगेगा! इसलिए हमें नहीं भाती, ऐसी वस्तु परोसी हो तब भी उसमें से दो चीज़ खा लेते हैं। ना खाएँ तो दो लोगों के साथ झगड़े हों। एक तो जो लाया हो, जिसने बनाया हो, उसके साथ झंझट हो, तिरस्कार लगे, और दूसरी तरफ खाने की चीज़ के साथ। खाने की चीज़ कहती है कि मैंने क्या गुनाह किया? मैं तेरे पास आई हूँ, और तू मेरा अपमान किसलिए करता है? तुझे ठीक लगे उतना ले, पर अपमान मत करना मेरा। अब उसे हमें मान नहीं देना चाहिए? हमें तो दे जाएँ, तब भी हम उसे मान देते हैं। क्योंकि एक तो मिलता नहीं है और मिल जाए तो मान देना पड़ता है। यह खाने की चीज़ दी और उसकी आपने कमी निकाली तो इसमें सुख घटेगा या बढ़ेगा? प्रश्नकर्ता : घटेगा। दादाश्री : घटे वह व्यापार तो नहीं करोगे न? जिससे सुख घटे ऐसा व्यापार नहीं ही किया जाए न? मुझे तो बहुत बार नहीं भाती हो ऐसी सब्जी हो वह खा लूँ और ऊपर से कहूँ कि आज की सब्जी बहुत अच्छी दादाश्री : गलत तरह से मन को मनाना नहीं है। एक तो 'भाता है' ऐसा कहें तो अपने गले उतरेगा। 'नहीं भाता' कहा तो फिर सब्जी को गुस्सा चढ़ेगा। बनानेवाले को गुस्सा चढ़ेगा। और घर के बच्चे क्या समझेंगे कि ये दखलवाले व्यक्ति हमेशा ऐसा ही किया करते हैं? घर के बच्चे अपनी आबरू (?) देख लेते हैं। हमारे घर में भी कोई जानता नहीं कि 'दादा' को यह भाता नहीं या भाता है। यह रसोई बनानी वह क्या बनानेवाले के हाथ का खेल है? वह तो खानेवाले के व्यवस्थित के हिसाब से थाली में आता है, उसमें दखल नहीं करनी चाहिए। साहिबी, फिर भी भोगते नहीं ये होटल में खाते हैं तो बाद में पेट में मरोड़ होते हैं। होटल में खाने के बाद धीरे-धीरे ऐसे सिमट जाता है और एक तरफ पड़ा रहता है। फिर वह जब परिपाक होता है, तब मरोड़ उठते हैं। ऐंठन हो, वह कितने ही वर्षों के बाद परिपाक होता है। हमें तो यह अनुभव हुआ उसके बाद से सबसे कहते कि होटल का नहीं खाना चाहिए। हम एक बार मिठाई की दुकान पर खाने गए थे। वह मिठाई बना रहा था उसमें पसीना पड़ रहा था, कचरा गिर रहा था! आजकल तो घर पर भी खाने का बनाते हैं, वह कहाँ चोखा होता है? आटा गूंदते हैं, तब हाथ नहीं धोए होते, नाखून में मैल भरा होता है। आजकल नाखून काटते नहीं न? यहाँ कितने ही आते हैं, उनके नाखन लंबे होते हैं, तब मुझे उन्हें कहना पड़ता है, 'बहन, इसमें आपको लाभ है क्या? लाभ हो तो नाखून रहने देना। तुझे कोई ड्रॉइंग का काम करना हो तो रहने देना।' तब वह कहे कि नहीं, कल काटकर आऊँगी। इन लोगों को कोई सेन्स ही नहीं है ! नाखून बढ़ाते हैं और कान के पास रेडियो लेकर फिरते हैं! खुद का सुख किसमें है वह भान ही नहीं है, और खुद का भी भान कहाँ है? वह तो लोगों ने जो भान दिया वही भान है। है। प्रश्नकर्ता : वह द्रोह नहीं कहलाता? न भाता हो और हम कहें
SR No.009589
Book TitleKlesh Rahit Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size51 KB
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