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________________ कर्म का सिद्धांत कर्म का सिद्धांत आपका नाम क्या है? हो गया। चोबीस तीर्थंकरो ने खुद को पहचान लिया था। ये खुद नहीं है, जो दिखता है, जो सुनता है, वो सब खुद नहीं है। वो सब परसत्ता है। आपको परसत्ता लगती है? चिंता-उपाधि कुछ नहीं लगता? वो सब परसत्ता है, अपनी खुद की स्वसत्ता नहीं है। स्वसत्ता में निरूपाधि है। निरंतर परमानंद है!! वो ही मोक्ष है!!! खुद का आत्मा का अनुभव हुआ, वो ही मोक्ष है। मोक्ष दुसरी कोई चीज नहीं है। प्रश्नकर्ता : रविन्द्र। दादाश्री : आप, 'मैं रविन्द्र हूँ' ऐसा मानते है, इससे आप पूरा दिन कर्म ही बांधते है। रात को भी कर्म बांधते है। क्योंकि आप जो है. वो आप जानते नहीं है और जो नहीं वो ही मानते है। रविन्द्र तो आपका नाम है मात्र और मानते है कि, 'मैं रविन्द्र हैं'। ये wrong belief, ये स्त्री का हसबन्ड हूँ, ये दूसरी wrong belief है। ये लडके का father हूँ, ये तीसरी wrong belief है। ऐसी कितनी सारी wrong belief है? मगर आप आत्मा हो गये, इसका realise हो गया, फिर आपको कर्म नहीं होता है। 'मैं रविन्द्र हूँ', ये आरोपित भाव से कर्म होता है। ऐसा कर्म किया, उसका फल दूसरे जन्म में आता है, वो कर्मचेतना है। कर्मचेतना अपने हाथ में नहीं है, परसत्ता में है। फिर इधर कर्मचेतना का फल आता है, वो कर्मफल चेतना है। आप शेरबाजार में जाते है, वो कर्मचेतना का फल है। धंधे में घाटा होता है, मुनाफा होता है, वो भी कर्मचेतना का फल है। उसको बोलता है, 'मैं ने किया, मैने कमाया', तो फिर अंदर क्या कर्म चार्ज होता है। 'मैं रविन्द्र हूँ' और 'मैं ने ये किया' उससे ही नया कर्म होता है। प्रश्नकर्ता : कर्म में भी अच्छा-बुरा है? दादाश्री : अभी यहाँ सत्संग में आपको पुण्य का कर्म होता है। आपको २४ घंटे कर्म ही होता है और ये हमारे 'महात्मा', वो एक minute भी नया कर्म नहीं बांधते और आप तो बहुत पुण्यशाली (!) आदमी है कि नींद में भी कर्म बांधते है। प्रश्नकर्ता : ऐसा क्यों होता है? ये सब पदगल की बाजी है। नरम-गरम, शाता-अशाता, जो कुछ होता है, वो पुद्गल को होता है। आत्मा को कुछ नहीं होता। आत्मा तो ऐसा ही रहेता है। जो अविनाशी है, वह खुद अपना आत्मा है। वो विनाशी तत्त्वों को छोड देने का। विनाशी तत्त्वों का मालिक नहीं होने का. उसका अहंकार नहीं होना चाहिये। ये 'रविन्द्र' जो कुछ करता है, उसके पर आपको खाली देखने का कि, 'वह क्या कर रहा है।' बस, ये ही अपना धर्म है, 'ज्ञाता-द्रष्टा', और 'रविन्द्र' सब करनेवाला है। वो सामायिक करता है, प्रतिक्रमण करता है, स्वाध्याय करता है, सब कुछ करता है, उसकी पर आप देखनेवाला है। निरंतर ये ही रहना चाहिये बस। दूसरा कुछ नहीं। वो 'सामायिक' ही है। अपना आत्मा शुद्ध है। कभी अशुद्ध होता ही नहीं है। संसार में भी अशुद्ध हुआ नहीं है और ये नाम, रूप सब भ्रांति है। 'रविन्द्र' क्या कर रहा है। उसकी तबियत कैसी है, वो सब 'आपको' देखने का है। अशाता हो जाये तो फिर हमें बोलने का कि, 'रविन्द्र, 'हम' तुम्हारे साथ है, शांति रखो. शांति रखो', ऐसा बोलने का। दूसरा कोई काम करने का ही नहीं। आप 'खुद' ही शुद्धात्मा है और ये 'रविन्द्र' वो कर्म का फल है, कर्मचेतना है। इसमें से फिर फल मिलता है, वो कर्मफल चेतना है। शुद्धात्मा हो गये फिर कुछ करने की जरूरत नहीं है। शुद्धात्मा तो अक्रिय है। 'हम क्रिया करता है, ये मैं ने किया' वो भ्रांति है। 'आप' तो ज्ञाताद्रष्टा, परमानंदी है और रविन्द्र 'ज्ञेय' है और चलानेवाला 'व्यवस्थित' चलाता है। भगवान नहीं चलाते, आप खुद भी नहीं चलाते है। हमें चलाने दादाश्री : Self का realise करना चाहिए। Self का realise हो गया, फिर कर्म नहीं होता। खुद को पहचानने का है। खुद को पहचान लिया, तो सब काम पूरा
SR No.009588
Book TitleKarma Ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Foundation
Publication Year2003
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size274 KB
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