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________________ दादा भगवान? दादा भगवान? सारे परिवार की उर्ध्वगति होगी। हमारा ऐसा देखकर उसका भी मन विशाल हो जायेगा। संकीर्ण मन विशाल हो जायेंगे। साझीदार भी रात-दिन साथ रहने के बावजूद आखिर ऐसे ही सत्कार किया करते थे कि 'दादा भगवान आइये, आप तो भगवान ही हैं।' देखिये, साझीदार को मेरे ऊपर प्रेम आया कि नहीं? साथ रहे, मतभेद नहीं हुआ और प्रेम उत्पन्न हुआ! इस हालात में उनको कितना लाभ होगा! अपने खुद के लिए मैंने कुछ नहीं किया। वह धंधा तो अपने आप चलता था। हमारे साझीदार इतना कहते थे कि, 'आप यह जो आत्मा संबंधी सब करते हैं, वह करते रहिए और दो-तीन महिने पर एकाध बार कार्य का निर्देश दे जाना कि 'ऐसे करना'। बस इतना काम वे मुझ से लिया करते थे। प्रश्नकर्ता : पर, साझीदार का भी कुछ अंदाज़ तो होगा न, कुछ पाने का? साझीदारी करेंगे तो खुद को कुछ लाभ होता हो तभी साझीदार बनाएँगे न? दादाश्री : हाँ। प्रश्नकर्ता : तो वहाँ उस समय उसे कौन-सा लाभ हुआ? दादाश्री : उसे तो सांसारिक रूप से, पैसों के मामले में भी सारा लाभ होगा न! वह तो अपने बेटों को सूचना दे गये थे कि दादाजी की उपस्थिति वह श्रीमंताई है। मुझे कभी भी पैसों की कमी नहीं आई है। (५) जीवन में नियम टेस्टेड किया अपने आपको । १९६१-६२ में मैंने एक बार कहा था कि, 'जो मुझे एक थप्पड़ मारेगा, उसे मैं पाँच सौ रुपये दूंगा।' पर कोई थप्पड़ मारने ही नहीं आया। मैंने कहा, 'अरे, पैसों की कमी हो तो लगा दे न!' तब कहे, 'नहीं. मेरी क्या गत होगी?' कौन मारता? ऐसा करने कौन आये? अगर कोई मुफ्त में मारता है उस दिन उसे महा पुण्य समझना चाहिए कि हमें इतना बड़ा पुरस्कार आज दिया। यह तो बहुत बड़ा पुरस्कार समझना चाहिए। वह तो पहले हमने भी देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है न, वही वापस आता है यह सब। ___मैं क्या कहना चाहता हूँ कि इस दुनिया का क्रम कैसा है कि आपको जो कमीज़ १९९५ में मिलनेवाली है उसे आपने आज उपयोग में ले ली, तो १९९५ में बिना कमीज़ के रह जायेंगे, यह स्पष्ट करना चाहता हूँ, ताकि आप उसे सलिके से उपयोग में लाएँ। बिना छीज के किसी चीज़ को निकाल मत देना और यदि निकालनी पड़े तब भी कहीं न कहीं छीज पड़ने के पश्चात् ही निकाली जाए। ऐसा मेरा नियम रहा है। इसलिए मैं कहता हूँ कि इतनी घीसाई अभी नहीं हुई, इसलिए चीज़ निकालना नहीं। क्योंकि थोड़ी-सी छीज हुई हो और अभी चीज़ काम में लाई जा सकती हो, उसे यों ही निकाल फेंकना वह तो मिनिंगलेस (अर्थहीन) ही कहलाये न! अर्थात् ये सारी चीजें जो आप उपयोग में लाते हैं उसका कोई हिसाब तो होगा कि नहीं होगा? वह सब हिसाब है और कहाँ तक का हिसाब है, कि एक परमाणु तक का हिसाब है, बोलिये, वहाँ अंधेर कैसे चलनेवाला है? 'व्यवस्थित' का ऐसा नियम है, परमाणु तक का हिसाब है। इसलिए कुछ बिगाड़ना नहीं। संसार में पोल नहीं चलता ज्ञानी पुरुष को त्यागात्याग संभव नहीं, फिर भी मुझे पानी का बिगाड़ करना पड़ता है। हमें पैर में जो फ्रेक्चर हुआ, इसलिए विलायती संडास में बैठना पड़ता है, जहाँ फिर पानी के लिए जंजीर खिंचनी पडती है और दो डिब्बे पानी बह जाता होगा। यह किसलिए कहता हूँ? पानी की कमी है इसलिए अथवा पानी क़ीमती है इस कारण? नहीं, पर पानी के कितने ही जीव यों ही बिना वजह टकरा-टकराकर मारे जाते हैं। और जहाँ कम पानी से काम हो सकता है वहाँ इतना सारा बिगाड क्यों किया जाए? यद्यपि मैं तो ज्ञानी पुरुष हूँ इसलिए भूल होते ही तुरंत दवाई डाल (प्रतिक्रमण कर) देता हूँ। फिर भी दवाई तो हमें भी डालनी होगी, क्योंकि वहाँ ज्ञानी पुरुष हो कि जो कोई भी हो, किसी की चलती नहीं है। यह अँधेर नगरी
SR No.009584
Book TitleDada Bhagvana Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size283 KB
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