SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दादा भगवान? ३७ दादा भगवान? जाते। केवल आँख की पर्सनालिटी ही ऐसी थी। आँखों और चेहरे का प्रभाव ही ऐसा था!! मैं देखकर ही कहता, 'मझे तो उनका डर रहता है।' फिर भी वे मुझे क्या कहते कि 'मैंने तेरे जैसा अहंकारी और कोई नहीं देखा!' अरे, मैं तो आपसे भड़कता हूँ। फिर भी अकेले में कहा करते कि, मैंने तेरे जैसा अहंकार और कहीं नहीं देखा! और वास्तव में वह अहंकार बाद में मेरी दृष्टि में आया। वह अहंकार जब मुझे काटता था तब मालूम हुआ कि बड़े भैया जो बताते थे, वह यही अहंकार है सारा ! 'मुझे और कुछ नहीं चाहिए था' माने लोभ नाम मात्र को नहीं ऐसा अहंकार! एक बाल बराबर भी लोभ नहीं। अब इसलिए वह मान कैसा होगा? यदि मान और लोभ विभाजित हुए होते तो मान थोड़ा कम हुआ ही होता... मन से माना हुआ मान मन में तो ऐसा गुमान कि मानों इस दुनिया में मैं ही हूँ, दूसरा कोई है ही नहीं। देखिये, खुद को ना जाने क्या समझ बैठे थे! मिल्कियत में कुछ नहीं। दस बीघा जमीन और एक मकान, उसके अलावा और कछ नहीं था। मगर मन में रौब कैसा? मानो चरोतर के राजा हो! क्योंकि आसपास के छह गाँव के लोगों ने हमें बहकाया था। दहेजिया दुल्हा, माँगे उतना दहेज मिले तब दुल्हा ब्याहने पर राजी होवे। उसका दिमाग में खुमार रहा करता था। कुछ पूर्वभव की कमाई लाया था, इसलिए ऐसी खुमारी थी सारी! गई, उसके 'हेबिच्युऐटड' हो गये। अब मान जब इतना भारी होगा तो उसकी रक्षा भी करनी पड़ेगी न! इसलिए फिर यदि कोई भूल से जल्दी में 'अंबालालभाई' नहीं बोल पाये और 'अंबालाल' कहकर पुकारे तो उसमें थोड़े ही उसका गुनाह है? छह अक्षर एक साथ जल्दी में कैसे बोल पाता कोई? प्रश्नकर्ता : क्या आप ऐसी आशा करते थे? दादाश्री : अरे, मेरा तो फिर मोल-तौल शुरू हो जाता कि 'इसने मुझे अंबालाल कहा? अपने आपको क्या समझता है? क्या, उससे अंबालालभाई नहीं बोला जाता?' गाँव में दस-बारह बीघा जमीन हो और कछ रौब जमाने जैसा नहीं पर मन में तो न जाने अपने आपको क्या समझ बैठे थे? 'हम छह गाँववाले, पटेल, दहेजवाले!' अब सामनेवाला 'अंबालालभाई' नहीं कहता, तब मेरी सारी रात नींद हराम हो जाती, व्याकुलता रहती। लीजिये!! उसमें क्या प्राप्ति होनेवाली थी? उससे मुँह कुछ थोड़े ही मीठा होता है? मनुष्य को कैसा स्वार्थ रहता है? ऐसा स्वार्थ जिसमें कुछ स्वाद भी नहीं आता हो। फिर भी मान लिया था, वह भी लोकसंज्ञा की मान्यता! लोगों ने बड़ा बनाया और लोगों ने बड़प्पन की मान्यता भी दी! मगर ऐसा लोगों का माना हुआ किस काम का? ये गाय-भैंस हमारी ओर दृष्टि करें और सभी गायें हमें देखती रह जाएं और फिर कान हिलाए तो क्या हम ऐसा समझें कि वे हमारा सम्मान करती हैं, ऐसे?! यह सब उसके समान है। हम हमारे मन से मान लें कि ये लोग सब सम्मान से देख रहें है, मन की मान्यता! वे तो सारे अपनेअपने दुःख में डूब हुए हैं बेचारे, अपनी-अपनी चिंता में हैं। वे क्या आपके लिए बैठे रहे हैं, बिना किसी काम के? अपनी-अपनी चिंता लिए चक्कर लगा रहे हैं सभी! पसंदीदा अहंकार दुःखदायी हुआ उस समय आसपास के लोग क्या कहते? बहुत सुखी मानुष! कॉन्ट्रेक्ट का व्यवसाय, पैसे आते-जाते। लोगों से बहुत प्रेम। लोगों ने भी उसमें भी मेरे बड़े भैया तो जबरदस्त खुमारी रखते थे। मेरे बड़े भैया को मैं 'मानी' कहा करता था। तब वे मुझे मानी बताते थे। एक दिन मुझे कहने लगे, 'तेरे जैसा मानी मैंने नहीं देखा।' मैंने पूछा, 'कहाँ पर आपको मेरा मान नज़र आया?' तब कहने लगे, 'हर बात को लेकर तेरा मान होता है।' और उसके बाद खोजने पर प्रत्येक बात में मेरा मान दिखाई दिया और वही मझे काटता था। मान कैसे पैदा हो गया था? कि सब लोग, 'अंबालालभाई, अंबालालभाई!' कहा करते थे, अंबालाल तो कोई कहता ही नहीं था न! छह अक्षर से पुकारे, इसलिए फिर उसकी आदत सी हो
SR No.009584
Book TitleDada Bhagvana Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size283 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy