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________________ दादा भगवान ? ३५ तब मैंने उसे पूछा, 'क्यों जाता रहा? मुझे जरा समझाओ न !' इस पर उसने बताया कि, 'यदि सेक्रेटरी प्रधान के तौर पर एक बनिया रखा होता तो उसे अपना राज्य नहीं गँवाना पड़ता!' मैंने पूछा, 'कैसे नहीं गँवाता? तब उसने कहा कि, नारद ने जब सीता के बारे में बताया कि सीता बहुत ही रूपवती है, ऐसी है, वैसी है, उस समय रावण मन में उकसाया गया कि किसी भी तरह सीता प्राप्त करनी है। उस समय यदि वणिक उसका अमात्य होता तो समझाता कि 'साहब, ज़रा धैर्य धारण कीजिये न, मैंने एक दूसरी सीता से भी बढ़कर स्त्री देखी है।' मतलब रावण को ऐन मौके पर दूर कर देता और एक बार मौका हाथ से निकल गया मानों सौ साल का फासला हो जाए।' ऐसी बात उस आदमी ने मुझे बताई थी। मैंने सोचा कि बात तो सयानेपन की है। मौके का फायदा उठाने के लिए ऐसा कोई चाहिए ही ! इसलिए इन वणिकों के साथ, हमारे दोनों ओर पड़ोसी वणिक हैं, उनके साथ इन चालिस सालों से रहता हूँ । हमने घर में कह दिया था कि हमारे यहाँ कोई कुछ लेने आये तो अवश्य देना, वापस लौटाये तो ले लेना, पर माँगना तो कभी नहीं। एक बार दिया हो, फिर से दोबारा देना पड़े, तीसरी बार देना पड़े, ऐसे सौ बार भले ही देना पड़े पर वापस लौटाने का मत कहना। लौटायें तो ले लेना । इन वणिकों का व्यवहार इतना लाजवाब कि उसके यहाँ हलुए का पूरा क़तला भेजें एकबार और दूसरी बार यदि आधा या चौथाई टुकडा भेजेंगे तब भी कोई शोर-शराबा नहीं करते। और एकाध बार यदि नहीं भेजेंगे तब भी हल्ला-गुल्ला नहीं। उनके साथ हमें रास आयेगा । हमें शोरशराबेवालों के साथ रास नहीं आता। उसके बाद मैंने एक वणिक को मुनीम की नौकरी दी थी। एक भाई मुझ से कहने आये कि 'आपको वणिकों से बहुत लगाव है, तो इस वणिक को नौकरी पर रखेंगे क्या?' मैंने कहा, 'आ जाओ, कारखाने पर इतने सारे लोग काम करते हैं और तूं ठहरा वणिक यह तो बेहतर होगा ! ' ऐसे सदैव अपने साथ वणिक रखा करता था । ३६ दादा भगवान ? वह सब मान के खातिर ही रोज़ाना चार-चार गाडियाँ घर के आगे खड़ी हो। मामा का मोहल्ला, संस्कारी मोहल्ला | आज से पैंतालीस साल पहले लोग बंगलों में कम रहते थे। बडौदा मामा का मोहल्ला सबसे बढ़कर गिना जाता था । उन दिनों हम वहाँ मामा के मोहल्ले में रहा करते थे और किराया पंद्रह रुपये माहवार था। उन दिनों लोग सात रुपये किराये के मकानों में पड़े रहते थे। अब वहाँ मामा के मोहल्ले में वे बंगलों में रहनेवाले मोटरें लेकर हमारे पास आया करते थे। क्योंकि मुसीबतों में फँसे हुए होते थे, इसलिए यहाँ पर आते, उलटा-सीधा करके आते थे, तब भी उनको 'पिछले दरवाजे से' बाहर निकाल देता था (अपनी सूझबूझ से मुसीबत में से निकलने का रास्ता दिखाता था)। पिछला दरवाजा दिखाता था कि इस दरवाजे से निकल जाइये। अब गुनाह उसने किया हो और पिछले दरवाजे से मैं छुडवा देता । अर्थात् गुनाह अपने सिर लिया। किस लिए? उस मान के खातिर । 'पिछले दरवाजे से' भगा देना गुनाह नहीं क्या? वैसे अक्ल लड़ाकर रास्ता दिखाया होवे, इसलिए वे बच निकलते थे। इसलिए वे हमें सम्मान से रखते, पर गुनाह हमारे सिर आता । फिर समझ में आया कि अभानावस्था में यह सारे गुनाह होते हैं, मान के खातिर ही । फिर मान पकड़ में आया। मान की बड़ी चिंता रहती थी। प्रश्नकर्ता : मान आपकी पकड़ में आया, फिर मान को मारा कैसे? दादाश्री : मान मरता नहीं है। मान को इस तरह उपशम किया। बाकी, मान मरता नहीं है। क्योंकि मारनेवाला खुद हो तो फिर मारेगा किसे ? खुद अपने को कैसे मारेगा? आपकी समझ में आया? इसलिए उपशम किया और ज्यों-त्यों करके दिन गुजारें । वह अहंकार काटता रहता दिन-रात हमारी बुद्धि जरा ज्यादा कूद-फाँद किया करती थी और अहंकार की कूद - फाँद भी अधिक थी। मेरे बड़े भैया बहुत अहंकारी थे, वैसे पर्सनालिटीवाले आदमी थे, उनको देखते ही सौ आदमी तो इधर-उधर हो
SR No.009584
Book TitleDada Bhagvana Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size283 KB
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