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________________ दादा भगवान? दादा भगवान? बैठिये' कहकर बैठने को गद्दी दे वह सुहाये। अब डेढ़ घंटा तो मानो बीस घंटे समान लगे। इसलिए मैंने मन में कहा कि, सबसे बड़ी मूर्खता यदि कोई है तो वह प्रतीक्षा करना है। किसी मनुष्य के लिए या किसी वस्तु के लिए प्रतीक्षा करना उसके समान फुलिशनेस (मूर्खता) और कोई नहीं इस दुनिया में! इसलिए तब से, बाईस साल की उम्र से प्रतीक्षा करना बंद कर दिया। और जब प्रतीक्षा करने का अवसर आ पड़े तब उस घड़ी और कोई काम सौंप दिया करता, प्रतीक्षा तो करनी ही पड़ती है, उसका तो कोई चारा नहीं है न! पर इसकी तुलना में हमने सोचा यह प्रतीक्षा करने का समय बड़ा सुंदर है। वरना खाली इधर-उधर झाँकते फिरें कि बस आई कि नहीं आई! इसलिए ऐसे समय पर हमने और प्रबंध कर दिया ताकि भीतर हमें आराम रहे। कोई प्रबंध तो किया जाएँ कि नहीं किया जाएँ हमसे? प्रश्नकर्ता : किया जाएँ। दादाश्री : काम तो अनेकों होते हैं न? प्रश्नकर्ता : अर्थात् मन को काम पर लगा देते? दादाश्री : हाँ, मन को काम पर लगा देना। प्रश्नकर्ता: किस काम में लगाते? दादाश्री : किसी प्रकार का प्रबंध कर सकते हैं। माने उन दिनों मैं क्या करता था? किसी संत या फिर कपालदेव (श्रीमद राजचंद्र) की कोई लिखाई हो वह मैं बोलता नहीं था, पढ़ा करता था। बोलने पर वह रटाई कहलाये। उसे मैं पढ़ा करता था सारा। आपकी समझ में आती है यह बात? प्रश्नकर्ता : उसे कैसे पढ़ते थे, दादाजी? बिना पुस्तक के कैसे पढ़ते संकल्प-विकल्प चला करें। और जब केवल रटना ही होगा तो मन हो गया बेकार। 'हे प्रभु, हे प्रभु' बोलते रहे और मन बेकार बेठा फिर बाहर चला गया होता है। इसलिए मैंने एडजस्टमेन्ट लिया था। ताकि जैसा लिखा हो वैसा नज़र आता रहे। जैसे :- हे प्रभु, हे प्रभु क्या करूँ, दीनानाथ दयाल, मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ करुणाल! यह हर शब्द, अक्षरसः मात्रा-बिन्दी के साथ सब नज़र आये। कृपालुदेव ने एक और रास्ता बतलाया था कि उलटे क्रम से पढ़ना। आखिर से लेकर शुरूआत तक आना। तब लोगों को इसकी भी प्रेक्टिस (आदत) हो गई, आदत-सी हो गई। मन का स्वभाव ही ऐसा है आप जिसमें पिरोयेंगे, उसकी आदत हो जायेगी, रट लेगा। और ऐसे पढ़ने में रटना नहीं होता, नज़र आना चाहिए। इसलिए यह हमारी सबसे बड़ी खोज है, पढ़ने की। और फिर हम दूसरों को भी सीखलाते हैं। इन सभी को सीखलाया कि पढ़कर बोलना। प्रश्नकर्ता : अब दादाजी, बाईसवें साल में भी यह ताक़त थी, क्या? दादाश्री : हाँ, बाईसवें साल में यह ताक़त थी। उलझन में खीली अंतर सूझ यानी मेरी इस उलझन के कारण यह ज्ञान उत्पन्न हुआ। डेढ़ घंटा यदि उलझता नहीं तो....? ल थे। प्रश्नकर्ता : एक मिनट भी नहीं चूकते... दादाश्री: वह एक मिनट के लिए चूकें, उसके फल स्वरूप यह ज्ञान पैदा हुआ। माने ठोकरें खा-खाकर यह ज्ञान उत्पन्न हुआ है, सूझ पैदा हुई है। जब ठोकर लगे तब सूझ पैदा हो जाए। और वह सूझ सदैव मुझे हेल्पिंग (सहायक) रहा करे। अर्थात् फिर मैंने कभी राह नहीं देखी किसी की। बाईसवें साल के पश्चात् मैंने किसी की राह नहीं देखी। गाड़ी आज दादाश्री : बिना पुस्तक के पढ़ता था। मुझे तो 'हे प्रभु' अक्षर लिखे हुए नज़र आये और मैं पढ़ता रहूँ। वरना मन तो रटेगा और फिर सारे
SR No.009584
Book TitleDada Bhagvana Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size283 KB
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