SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दादा भगवान? दादा भगवान? वह सीधी बात का प्रचार उतनी ही जल्दी करेगा।' इसलिए सीधी बात के प्रचार हेतु वे साधन सर्वोत्तम है। यह सब उस समय सोचा था, परंतु १९५८ में ज्ञान प्रकट होने के पश्चात् उसके बारे में जरा-सा भी विचार नहीं आया है। जीवन में नियम ही यही रहा अर्थात् बचपन से मैंने यही सीखा था कि, 'भैया, तू मुझे आकर मिला और यदि तुझे कुछ सुख प्राप्त नहीं हुआ तो मेरा तुझ से मिलना बेकार है।' उन मिलनेवालों से ऐसा मैं कहता था। वह चाहे कितना भी नालायक हो, यह मुझे नहीं देखना है पर यदि मैं तुझे मिला और मेरी ओर से सुगंधि नहीं आयी वह कैसे चला लें? यह धूपबत्ती नालायकों को सुगंधि नहीं देती क्या? प्रश्नकर्ता : सभी को देती है। दादाश्री : उसी प्रकार यदि मेरी सुगंधि तुझ तक नहीं पहुँचती तो फिर मेरी सुगंधि ही नहीं कहलाये। अर्थात् कुछ लाभ होना ही चाहिए। ऐसा पहले से ही मेरा नियम रहा है। नहीं हुई, ऐसी मेरी मान्यता थी। इसलिए वहाँ तप होने देते थे। पर उस तप का दाग़ आज तक बना हुआ है! गया नहीं। तप का दाग़ सारी जिन्दगी नहीं जाता। यह उलटा मार्ग है, यह हमारी समझ में आ गया था। तप तो भीतरी होना चाहिए। प्राप्त तप भुगता, अदिठ रूप में मुंबई से बडौदा कार में आना था, इसलिए बैठते ही कह दिया कि, 'सात घंटे एक ही जगह बैठना होगा, तप आया है। हम आपके साथ बातें करें, पर भीतर में हम से हमारी बात चलती रहे कि, 'आज आपको तप आया है इसलिए एक अक्षर भी मुँह से मत निकालना।' लोग तो आश्वासन के लिए पूछते रहें कि, दादाजी आपको अनुकूलता है कि नहीं? तब कहते, 'पूरी अनुकूलता है।' पर हम किसी को भी कमिशन नहीं जुटाते, क्योंकि हम भुगतें। एक अक्षर भी मुँह से निकाले वह दादाजी नहीं। इसे कहते हैं, प्राप्त तप भुगतना। प्रतीक्षा करने के बजाय हमें रात के समय बाहर से आना पड़े तो हमारे जूतों की आवाज़ से कुत्ता जाग नहीं जाए, इसलिए हम पैर दबाकर चलते थे। कुत्तों को भी नींद तो होती है न? उन बेचारों को कहाँ बिछाना नसीब में? तब क्या उन्हें चैन की नींद सोने भी नहीं देना? प्रश्नकर्ता : दादाजी, यह आपके पैरों में गोखरू कैसे हो गये? जब बाईस साल का था तब एक दिन एक जगह केवल एक ही मिनट के लिए बस चूक गया। हालोल रोड पर एक गाँव पड़ता है, वहाँ था और बस आकर निकल गई। वैसे तो मैं आया था एक घंटे पहले पर हॉटेल से बाहर आने में एक मिनट की देरी हुई और बस निकल गई। अर्थात् वह विषाद की घड़ी कहलाये। अगर समय पर नहीं आते और बस निकल गई होती तो हम समझते कि चलिए, 'लेट' हो गये। उस हालात में इतना विषाद नहीं होता। यह तो समय से पहले आये और बस नहीं पकड़ पाये! अब दूसरी बस डेढ़ घंटे के बाद ही मिलती थी। अब वहाँ डेढ़ घंटा जो प्रतीक्षा करनी पड़ी न, वहाँ मेरी क्या स्थिति हुई? माने भीतर मशीन चलने लगी! अब ऐसे वक्त में कितनी झंझट पैदा होती है? मजदूर को पचास झंझट होती है और मुझे लाख होवे! कहीं जरासा भी चैन नहीं आये, न तो खड़े रहना भाये कि न तो कोई 'आइये, दादाश्री : वह तो हमने आत्मा प्राप्त करने हेतु तप किया था उसका परिणाम है। वह तप कैसा कि जूते में कील ऊपर आ जाए तो उसे ठोकना नहीं, यों ही चलाते रहना। बाद में हमें मालम पड़ा कि यह तो हम उलटी राह चल रहे हैं। ऐसा तप हमने किया था। जूते में कील बाहर निकल आये और पैरों में चुभती रहे उस समय यदि आत्मा हिल जाए तो आत्म प्राप्ति
SR No.009584
Book TitleDada Bhagvana Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size283 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy