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________________ चिंत्ता ६ चिंत्ता से, प्रतिकार का अहंकार छोटा है। भगवान ने कहा है कि, 'ऐसी परिस्थिति में सामना करना, उपाय करना, पर चिंता मत करना।' चिंता करनेवाले को दोहरा दंड भगवान कहते हैं कि चिंता करनेवालों को दो दंड है और चिंता नहीं करनेवालों को एक ही दंड है। अट्ठारह साल का एकलौता लड़का मर जाये, उसके पीछे जितनी चिंता करते हैं, जितना दु:खी होते हैं, सिर फोड़ते है, ओर जो कुछ भी करते हैं, उनको दो दंड हैं। और यह सब नहीं करें तो एक ही दंड है। लड़का मर गया उतना ही दंड है और सिर फोड़ा वह विशेष दंड है। हम उस दोहरे दंड में कभी भी नहीं आते। इसलिए हम ने इन लोगों से कहा है कि पाँच हजार की जेब कट जाये तब 'व्यवस्थित' (अर्थात सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स) है, कहकर आगे चलना और आराम से घर जाना। दादाश्री : वह तो 'ज्ञानी पुरुष' के पास आकर कृपा ले जाना। फिर चिंता बंद हो जायेगी और संसार चलता रहेगा। चिंता जाये तब से समाधि चिंता नहीं हो तो सच में उलझन गई। चिंता नहीं हो, वरीज़ नहीं हो और उपाधि में समाधि रहे तो समझना कि सच में उलझन गई। प्रश्नकर्ता : ऐसी समाधि लानी हो तो भी नहीं आती। दादाश्री : वह तो लाने से नहीं आती। ज्ञानी पुरुष उलझन सुलझा दें, सब शुद्ध कर दें, तब निरंतर समाधि रहती है। यदि चिंता नहीं हो ऐसी लाइफ हो, तो अच्छी कहलायेगी न? प्रश्नकर्ता : वह तो अच्छी ही कहलायेगी न! दादाश्री : हम बगैर चिंता की लाइफ बना देंगे। फिर आपको चिंता नहीं रहेगी। इस काल का यह एक महान आश्चर्य है। इस काल में ऐसा नहीं होता, मगर देखिए यह हुआ है न! 'खुद' परमात्मा, फिर चिंता क्यों ? सिर्फ बात ही समझनी है। आप भी परमात्मा हैं, भगवान ही हैं, फिर किस लिए वरीज़ (चिंता) करनी? चिंता किस लिए करते हैं? एक क्षण भर के लिए भी चिंता करने जैसा यह संसार नहीं है। चिंता से अब वह सेफ साइड नहीं रह सकती, क्योंकि जो सेफ साइड नेचुरल थी, उसमें आपने उलझन पैदा की। फिर अब चिंता क्यों करते हो? उलझन आने पर उसका सामना करो और सुलझा दो। प्रश्नकर्ता : यदि हम प्रतिकूलता का सामना करें, उसका अवरोध करें, प्रतिकार करें, तो उससे अहंकार बढ़ेगा? दादाश्री : चिंता करने से सामना करना अच्छा है। चिंता के अहंकार यह एक दंड हमारा खुद का हिसाब ही है, इसलिए घबराने का कोई कारण नहीं है। इसलिए हो गया है, उसे तो 'हुआ सो करेक्ट' ऐसा कहो। जिसकी चिंता वह कार्य बिगड़े कुदरत क्या कहती है कि कार्य नहीं होता हो तो प्रयत्न कीजिये, जबरदस्त प्रयत्न कीजिये मगर चिंता मत कीजिये। क्योंकि चिंता करने से उस कार्य को धक्का पहुँचता है और चिंता करनेवाला खुद लगाम अपने हाथों में लेता है। 'मैं ही मानो चलाता हूँ।' ऐसे लगाम अपने हाथों में लेता हैं। उसका गुनाह लागू होता है। परसत्ता प्रयोग से चिंता होती है। विदेश की कमाई विदेश में ही रहेगी। ये मोटर-बँगले, मिलें, बीवी-बच्चे सभी यहाँ छोड़कर जाना पड़ेगा। उस आखरी स्टेशन पर तो किसी के बाप का चलनेवाला नहीं हैं। सिर्फ
SR No.009582
Book TitleChinta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2006
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size294 KB
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