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________________ ८५ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य तो बहुत अच्छा। खुद को पता चलेगा। सप्ताह के मध्य में ही इतना आनंद होगा! आत्मा का सुख और आस्वाद आएगा कि कैसा सुख है! यह आप खुद महसूस करेंगे! कितने ही लोग कहते हैं, मुझसे विषय छूटता नहीं है। मैंने कहा, ऐसा पागलपन क्यों करता है? थोड़ा-थोड़ा नियम से चल! नियम में रहना, फिर नियम छोड़ना मत। इस काल में यदि नियम नहीं करें तो फिर चलेगा ही नहीं! थोड़ी-सी ढील तो रखनी ही पड़ती है। नहीं रखनी पड़ती? प्रश्नकर्ता : यदि पुरुष की इच्छा ब्रह्मचर्य पालन की हो और स्त्री की इच्छा नहीं हो तो क्या करें? दादाश्री : नहीं हो तो उसमें क्या हर्ज है? उसके बारे में उसे समझा देना। प्रश्नकर्ता : कैसे समझाएँ? दादाश्री : वह तो समझाते-समझाते समाधान होगा, धीरे-धीरे! एकदम से बंद नहीं होगा। दोनों आपस में समाधानकारी मार्ग लो! इसमें क्या नुकसान है, यह सब बतलाना और ऐसे विचारणा करना। मोक्ष में जाना हो तो विषय हटाना होगा। हज़ार महात्मा हैं, जो सालसालभर का व्रत लेते हैं। कहते हैं, 'हमें सालभर के लिए व्रत दीजिए।' सालभर में उसे पता चल जाता है। अब्रह्मचर्य तो अनिश्चय है। अनिश्चय उदयाधीन नहीं है। मैंने तो चार-पाँच लोगों को पछा तो अवाक रह गया। मैंने कहा, भैया, ऐसा पोल नहीं चलेगा। अनिश्चय है यह तो। उसे तो निकालना ही होगा। ब्रह्मचर्य तो पहले चाहिए। वैसे निश्चय से तो आप ब्रह्मचारी ही हैं मगर व्यवहार से भी होना चाहिए। ब्रह्मचर्य और अब्रह्मचर्य का जिसे अभिप्राय नहीं, उसे ब्रह्मचर्य व्रत वर्तन में आया कहलाता है। आत्मा में निरंतर रहना यह हमारा ब्रह्मचर्य है। ८६ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य फिर भी हम इस बाहर के ब्रह्मचर्य का स्वीकार नहीं करते ऐसा नहीं है। आप संसारी हैं, इसलिए मुझे कहना पड़ता है कि अब्रह्मचर्य का हर्ज नहीं है, परन्तु अब्रह्मचर्य का अभिप्राय तो होना ही नहीं चाहिए। अभिप्राय तो ब्रह्मचर्य का ही होना चाहिए। अब्रह्मचर्य हमारी निकाली 'फाइल' है। परंतु अभी उसमें अभिप्राय बरतता है और उस अभिप्राय की वजह से 'जैसा है वैसा' आर-पार देख नहीं पाते। मुक्त आनंद का अनुभव नहीं होता, क्योंकि उस अभिप्राय का आवरण बाधा करता है। अभिप्राय तो ब्रह्मचर्य का ही होना चाहिए। व्रत किसे कहते हैं? (अपने आप) बरते उसे व्रत कहते हैं। ब्रह्मचर्य महाव्रत बरता किसे कहते हैं? जिसे अब्रह्मचर्य की याद ही न आए, उसे ब्रह्मचर्य महाव्रत वर्तन में है, ऐसा कहते हैं। १०. आलोचना से ही जोखिम टलें, व्रत भंग के भगवान ने क्या कहा है कि व्रत तो तू स्वयं तोड़े तो टूटेगा। कोई तुझे क्या तुड़वाएगा? ऐसे किसी के तुड़वाने से व्रत टूट नहीं जाता। व्रत लेने के बाद व्रत का भंग हो तो आत्मा (का ज्ञान) भी चला जाए। व्रत लिया हो तो उसका भंग हमसे नहीं होना चाहिए और भंग हो तो बता देना चाहिए कि अब मेरी नहीं चलती है। ११. चारित्र का प्रभाव व्यवहार चारित्र यानी पुद्गल चारित्र, आँख से दिखे ऐसा चारित्र और वह निश्चय चारित्र उत्पन्न हुआ कि भगवान हुआ कहलाए। अभी आप सभी को 'दर्शन' है, फिर 'ज्ञान' में आएगा, परंतु चारित्र उत्पन्न होते देर लगेगी। यह हमारा अक्रम है न, इसलिए चारित्र शुरू होता भी है, परंतु वह आपकी समझ में आना मुश्किल है। प्रश्नकर्ता : व्यवहार चारित्र के लिए दूसरा विशेष क्या करें? दादाश्री : कुछ नहीं। व्यवहार चारित्र के लिए और क्या करना? ज्ञानी की आज्ञा में रहना वही व्यवहार चारित्र और यदि उसमें यह ब्रह्मचर्य भी आ जाए तो अत्ति उत्तम और तभी सच्चा चारित्र कहलाए।
SR No.009580
Book TitleBrahamacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages55
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size47 KB
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