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________________ आप्तवाणी-४ (३) प्रारब्ध-पुरुषार्थ नहीं रहेगा। देखो, आपको कुछ भी नहीं करना पड़ता न? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : क्रमिक मार्ग यानी अहंकार तो है ही और उसके साथ हरि की इच्छा, उन दोनों का मेल किस तरह हो? इसलिए महावीर भगवान ने कह दिया कि व्यवहार का तू कर्ता है। यदि त अहंकारी है तो त ही कर्ता है और यदि तू निअहंकारी है तो 'व्यवस्थित' कर्ता है। प्रश्नकर्ता : दादा, यदि हरि को कर्ता कहें, तो खुद को अकर्ता समझकर नहीं रह सकते? दादाश्री : नहीं, खुद कभी भी अकर्ता बनेगा किस तरह? अकर्ता बने तो त्याग किस तरह किया जाए? 'हरि इच्छा' तो खद के मन के समाधान के लिए है कि यह प्याला गिर गया तो वह 'हरि इच्छा' के अधीन है, ऐसा कह देता है। बाकी हरि नाम का कोई है ही नहीं, वहाँ पर कैसी 'हरि इच्छा'? अपने काम में किसीको दख़ल करने का अधिकार क्या है? मेरे काम में भला हरि को किसलिए इच्छा करनी पड़े? वह क्या ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) है मेरा? पर देखो न, अभी तक यह पोलम्पोल चली ही है न? 'ज्ञानी पुरुष' तो किसीका अवलंबन नहीं लेते हैं। कुछ लोग उदयकों का फल है कहते हैं। हमने तो, यह 'व्यवस्थित' इतना अच्छा दिया है कि आपको ज़रा भी मुश्किल नहीं पड़े। और 'व्यवस्थित' देखकर आपको दिया है। पूरा सौ प्रतिशत 'व्यवस्थित' है! नहीं तो आप उल्टे रस्ते चढ़ जाओगे। हम क्या कहते हैं कि, जगत् के संबंध में 'व्यवस्थित' है। तुझे मैंने जो दिया है, वह अब तेरा चलाता रहेगा। तू अब पुरुषार्थ धर्म में रह। तब कोई पूछे कि, साहब मेरा चलेगा या नहीं चलेगा? अरे, 'व्यवस्थित' है, इसलिए तू उस तरफ देखना मत। यह शरीर, मन, वचन सभी उसके बस में है। तू तो, शरीर जो करता है उसे देखता रह। ये चंदूभाई क्या करते हैं, उसे आप देखते रहो। और तू हमारी पाँच आज्ञा पालता रह। बोलो, इतना आसान, सरल प्रकार से दिया है या नहीं? प्रश्नकर्ता : इन पाँच आज्ञा में रहना, वह पुरुषार्थ कहलाता है? दादाश्री : हाँ, आज्ञा में रहना वही पुरुषार्थ है, वही धर्म और वही तप। आज्ञा में सभी आ गया। फिर और कछ भी करना नहीं है। यदि ज्ञानी मिल जाएँ तो उनकी आज्ञा में ही रहना है। भाग्य बड़ा या पुरुषार्थ? प्रश्नकर्ता : भाग्य बड़ा या पुरुषार्थ बड़ा? दादाश्री : भाग्य को और पुरुषार्थ को जो पहचाने 'वह' बड़ा! उसे लोग पहचानते नहीं हैं। आप किसे पुरुषार्थ समझते हो? आपको भाग्य का अनुभव हुआ है? प्रश्नकर्ता : मैं तो, सबकुछ भाग्य से ही होता है, ऐसा मानता हूँ। दादाश्री : पुरुषार्थ कहाँ देखा आपने? प्रश्नकर्ता : रोज़ के रूटीन में होता है वह पुरुषार्थ है। दादाश्री : प्रारब्ध कौन-सा? प्रश्नकर्ता : चमत्कार जैसा हो, तब आपके दर्शन हुए उसे भाग्य मानता हूँ। दादाश्री : और यहाँ आप आए वह पुरुषार्थ कहलाता है? प्रश्नकर्ता : हाँ, वह पुरुषार्थ कहलाता है। दादाश्री : यानी प्रारब्ध और पुरुषार्थ में भेद का ही लोगों को पता नहीं चलता। यह भ्रांति से ऐसा कहते हैं। भ्रांति एक दृष्टि है न?! उस भ्रांत दृष्टि से ऐसा दिखता है कि यह प्रारब्ध और यह पुरुषार्थ । वास्तव में पुरुषार्थ दिखता ही नहीं। यह जो दिखता है, वह सारा ही प्रारब्ध है। पुरुषार्थ तो होता रहता है, उसका खुद को पता भी नहीं चलता। यदि पुरुषार्थ दिखे, तब तो सभी उसे मोड़ दें। प्रश्नकर्ता : पुरुषार्थ किस तरह होता है? दादाश्री : पुरुषार्थ अंदर हो रहा है, जिसे भावपुरुषार्थ कहते हैं। अब
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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