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________________ (३) प्रारब्ध-पुरुषार्थ आप्तवाणी-४ लेकिन उल्टा ही आधार हो गया, वहाँ पर क्या हो? प्रश्नकर्ता : मुझे ऐसा लगता है कि प्रारब्ध शब्द है वह व्यक्ति को लक्ष्य में रखकर है और 'व्यवस्थित' है वह समष्टि को लक्ष्य में रखकर है। यह ठीक है? दादाश्री : नहीं, वैसा नहीं है, प्रारब्ध व्यक्ति को लक्ष्य में रखकर है ही, पर 'व्यवस्थित' तो उससे आगे जाता है। प्रारब्ध पहले हो जाता है, उसके बाद फिर वह 'व्यवस्थित' होता है। व्यवस्थित' व्यष्टि-समष्टि सभी का स्पष्टीकरण देता है। 'व्यवस्थित' के ज्ञान में सारा ही स्पष्टीकरण मैंने दे दिया है। जगत् कैसा है? कौन चलाता है? किस तरह चलता है? सब बता दिया है। इसलिए बता दिया है कि आपको हितकारी हो, आपको शांति रहे, संकल्प -विकल्प नहीं हो। क्रमिक मार्ग में व्यवस्थित' समझ में नहीं आता। क्रमिक मार्ग ठेठ तक अहंकारी मार्ग है, इसलिए 'व्यवस्थित' कहा ही नहीं जा सकता। खुद कर्ता बने तो 'व्यवस्थित' को कर्ता एक्सेप्ट ही नहीं करेगा। उन्हें तो ऐसा ही है कि, 'मैं कर्ता हूँ।' तब कहें कि, 'आप कर्त्ता थे, तो फिर नुकसान किस तरह हुआ?' तब कहता है कि, 'भाई, प्रारब्ध के अधीन।' वे लोग प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों कहते हैं। आपको ज्ञान मिले कितने वर्ष हुए? प्रश्नकर्ता : तीन वर्ष। दादाश्री : तो तीन वर्ष में आपको 'व्यवस्थित' में कोई भूल लगी अपने आप चल रहा है। इसलिए आपको परेशान होने जैसा है ही नहीं। ये बाल कैसे अपने आप उग रहे हैं! मूंछ उग रही है ! तुझे जब फ्रेंचकट करवानी हो तब करवाना। शायद कभी कोई मूंछे मूंड दे तो तू घबराना मत। और उस मूंडनेवाले पर चिढ़ना मत । वे तो फिर से आ जाएँगी। मूंछे तो महीनेभर में फिर से उग जाएँगी। इसलिए चिढने जैसा नहीं है। बेटा मर गया तो चिंता मत करना, 'व्यवस्थित' है। नुकसान हो जाए तो भी चिंता मत करना। फायदा हो तो तू उछलकूद मत करना। वह सारा 'व्यवस्थित' करता है। त तो करता नहीं है। रात-दिन. संध्या-उषा. सब कैसे नियम में हैं, वैसे ही मन का भी 'व्यवस्थित' के ताबे में है। यह तो हमने सारा अनावृत कर दिया है। और इतना अनावृत करने के लिए ही बहुत लम्बे काल की हमारी खोज थी कि वास्तव में क्या है? प्रारब्ध कहें तो हम आराम से सो जाएँगे, परन्तु फिर पुरुषार्थ कहते हो, तो जल्दी उठें या सोते रहें? अर्थात् यह अद्बद मुझे पसंद नहीं था। तब क्या हक़ीक़त है? तब हमने कहा, 'व्यवस्थित'! यानी ऑल राइट! यह 'व्यवस्थित' का ज्ञान देने के बाद व्यक्ति संपूर्ण ज्ञानी की तरह ही रह सके वैसा है। संकल्प-विकल्प खड़े ही नहीं होते। इन्कमटैक्सवाले की चिट्ठी आई कि आपको जुर्माना किया जाएगा तो हम तुरन्त ही समझ जाएँ कि 'व्यवस्थित' है। और 'व्यवस्थित' में होगा तो वह जुर्माना करेगा न? नहीं तो उसे संडास जाने की भी शक्ति नहीं है, तो वह और क्या करनेवाला है? जगत् में कोई कुछ कर सके, वैसा है ही नहीं। और अपना 'व्यवस्थित' होगा तो वह भी छोड़नेवाला नहीं है, तो किसलिए हम डरें? हमारा है वह हमें छोड़नेवाला नहीं है। उसमें साहब बेचारा क्या करे? साहब तो निमित्त हैं। और वह साहब के साथ बैर भी रखता है कि, सिर्फ यह साहब ही ऐसा है, वह कब से मेरे पीछे पडा है। अरे, साहब तेरे पीछे नहीं पड़ते, तेरा कर्म तेरे पीछे पड़ा है। यानी ये लोग बिना समझे बैर ही बाँधते हैं न बल्कि ! प्रश्नकर्ता : नहीं, ज़रा भी नहीं लगी। दादाश्री : हरि में तो शंका पड़ती है कि हरि ने ऐसा किसलिए किया? हरि नाम का कोई है ही नहीं, वहाँ पर। यह तो आसरा है। संत पुरुषों का दिया हुआ शब्द, इन लोगों को आधार तो चाहिए न? यह तो अपना अक्रमविज्ञान है, इसलिए 'जैसा है वैसा' जगत् कह दिया कि इतना जब तक खुद कर्ता बनता है, तब तक 'कौन कर्ता है' वह समझ में नहीं आता। और कौन कर्ता है, वह समझ में आ जाए, तो खुद कर्ता
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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