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________________ आत्मस्थ होने के कारण 'ज्ञानी' को जगत् विस्मृत रहता है, पर दर्शन में उन्हें सबकुछ ही दिखता है। स्मृति, वह पौद्गलिक शक्ति है। दर्शन, वह आत्मा की शक्ति है। कौन-से साधन से मोक्ष? : आत्मज्ञान से। मोक्षमार्ग में व्यवहार बाधकरूप है? : नहीं, बाधा है अज्ञान की। मोक्ष मार्ग में शासन देव-देवीयों : हाँ, मार्ग में कोई अड़चन नहीं आए की आराधना की ज़रूरत है? उसके लिए। जैनों की चौथ सच्ची या पाँचम? : जो अनकल आए वह सच्ची। जिससे धर्म हो वह सच्ची, और अधर्म हो वह खोटी। जैन किसे कहा जाता है? : जिसने 'जिन' की या जिनेश्वर की वाणी सुनी हो, वह। सुनकर, श्रद्धा रखकर उसका संपूर्ण पालन करे, वह साधु और अंशतः पालन करे, वह श्रावक! [२५] आइ एन्ड माइ सेपरेट आइ (मैं) एन्ड माइ (मेरा) विथ ज्ञानीस् सेपरेटर। आइ इज इम्मोर्टल। माइ इज मोर्टल। (आइ और माइ को ज्ञानी के उपकरण से अलग करें। आइ शाश्वत है और माइ नाशवंत है।)- दादा भगवान याद आए, वह परिग्रह। फिर भी ज्ञानी याद आएँ, उस राग को प्रशस्त राग कहा है। जो राग संसार की ममता उड़ाकर ज्ञानी में रख दे, तो वह राग ही मोक्ष का कारण है। ____ फूल चढ़ाए उस पर राग नहीं और गालियाँ दे उस पर द्वेष नहीं वह समता है। समताभाव भुलावे में डाल सकता है, जब कि ज्ञाता-दृष्टाभाव में जागृति सतत रहती है। संसार में संतोष होता है, पर तृप्ति नहीं होती। संतोष से तो नये बीज डलते हैं! [२७] निखालिस आत्मज्ञान वहाँ खरी निखालिसता है। शास्त्र पढ़ने की जरूरत नहीं है। निखालिस होना है। निखालिस अर्थात् प्योर! असामान्य मनुष्य यानी जो जीव-मात्र के लिए सहायक बन जाए! खुद प्रकृति से पर बनें, सच्ची आज़ादी प्राप्त करें, वह ! [२८] मुक्त हास्य मुक्त हास्य संपूर्ण मुक्त पुरुष के मुखारविंद की निरंतर शोभा है ! भीतर के तरह-तरह के आग्रह, दोष, एटिकेट (शिष्टाचार) के भूत हास्य को तनाववाला रखते हैं । सरलता, निर्दोषता, उतना ही हास्य मुक्त! वीतरागता वहाँ संपूर्ण मुक्त हास्य! [२९] चिंता : समता चिंता तो चार पैरों की गति का चित्रण करती है! खुदा को छूकर बैठे हुए 'ज्ञानी' और उन 'ज्ञानी' के नज़दीक बैठे, वह जहाँ-जहाँ 'माइ' की जकड़न है उसे एक तरफ हटाया जाए तो अंत में एब्सोल्यूट 'आइ' मिलता है। 'आइ', वह भगवान और 'माइ', वह माया। - दादा भगवान । ज्ञानी 'आई' एन्ड 'माइ' के बीच में भेदरेखा डाल देते हैं। [२६] स्मृति -राग-द्वेषाधीन स्मृति राग-द्वेष के अधीन है। जिस-जिस में राग या फिर द्वेष है, उसकी याद सताती है। जिन्हें आत्मा के सिवाय कुछ भी याद नहीं आए, वे वीतराग। निरंतर ३७ ३८
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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