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________________ आप्तवाणी-१ ३४ आप्तवाणी-१ ध्यान-अपध्यान : जो चारों ध्यान में नहीं समाए, वह अपध्यान। पहले लोगों को अपध्यान रहते थे, पर अब तो चपरासी तक को अपध्यान रहता है। इन लोगों को यदि आज नहीं, तो फिर मेरे जाने के बाद मेरे वाक्य थरथराएंगे (चेतावन रूप बनेंगे)। अपध्यान तो दुर्ध्यान से भी निम्न कक्षा का है। अपध्यान इस काल में ही उत्पन्न हुआ है। जो ध्यान रौद्र, आर्त और धर्मध्यान में समाविष्ट नहीं होता, वह अपध्यान। इसका ख्याल उसके जन्म के समय कितना वैभव था, इस पर से आता है। इसके आधार पर तू सारी जिन्दगी का प्रमाण तय करना। यही नियम है, दरअसल। बाकी तो सब एक्सेस (ज़रुरत से ज्यादा) में जाता है और एक्सेस तो ज़हर है, मर जाएगा।' प्राप्त को भोगो कृष्ण भगवान ने क्या कहा है, 'प्राप्त को भोग, अप्राप्त की चिंता मत करना।' मैं एक बार अहमदाबाद में एक सेठ के घर गया। सेठानी ने मिष्ठान के साथ सुंदर रसोई बनाई। फिर मैं और सेठ भोजन करने बैठे। सेठानी सेठ से कहने लगी, 'आज तो ठीक से भोजन कीजिए।' मैंने पूछा, 'क्यों ऐसा कहती हो?' तब सेठानी बोली, 'अरे! यह तो यहाँ जो भोजन कर रहा है वह तो शरीर है और 'सेठजी' तो मिल में गए होते हैं! कभी भी ठीक से भोजन नहीं करते।' ऐसा क्या! अरे, यह थाली इस समय जो प्राप्त हुई है, उसे आराम से भोगो न? मिल अभी अप्राप्त है उसकी चिंता क्यों? भूत और भविष्य दोनों ही अप्राप्त हैं। वर्तमान प्राप्त है, उसे आराम से भोगो। अरे! ये लोग तो इस हद तक पहुँचे हैं कि चार साल की लड़की के ब्याह की चिंता आज से करते हैं। यहाँ तक कि वह मृत्युशैय्या पर पड़ा हो, और घरवालों ने दिया वगैरह जला रखा हो, और वह खुद अंतिम साँस ले रहा हो, तब बेचारी बिटिया भी आकर कह जाती है कि पिताजी आप चैन से जाइए, मेरी चिंता मत करना। तब वह कहता है, 'तू क्या समझेगी इसमें?' मन में ऐसा समझता है कि अभी बच्ची है, नादान है इसलिए ऐसा कहती है। लीजिए, यह मूर्ख! बुद्धि का बोरा ! बाजार में बेचने जाएँ तो कोई चार आने भी न दे। आत्मा जैसा चिंतन करें, वैसा तुरंत ही फल तुरंत मिलता है। एकएक अवस्था में एक-एक जन्म बाँधे, ऐसा है यह सब। ध्यान और अपध्यान शुक्लध्यान तो इस काल में है ही नहीं, ऐसा शास्त्रों का कथन है। इन चारों ध्यानों में जो नहीं समाता, वह अपध्यान। छूटने हेतु किए गए ध्यान को पद्धति अनुसार नहीं किया. वह अपध्यान में गया। सामयिक करते समय ध्यान रहता है कि 'मैंने किया,' कहता भी है कि 'मैंने किया और फिर बार-बार घड़ी देखता रहता है। ऐसे बार-बार घड़ी देखा करे, वह ध्यान कैसे कहलाए? रौद्रध्यान : रौद्रध्यान किसे कहते हैं? ये व्यापारी एक मीटर के बीस रुपये बताते हैं। यदि पूछे कि यह कपडा कौन-सा है? तब वे जवाब देते है, 'टेरेलीन'। ग्राहक को उसका भाव बीस रुपये प्रति मीटर बताते हैं और फिर कपड़ा नापते समय क्या करते हैं? कपड़ा खींचकर नापते हैं। यह जो 'व्यायाम' किया, वह रौद्रध्यान है। ग्राहक को नाप से थोड़ासा भी कम देकर, सामनेवाले के साथ बनावट करके, उसके हिस्से का हथिया लेना, वह रौद्रध्यान है। ज़रूरत से ज्यादा लेना या फिर नापतोल में गड़बड़ करके हथियाना, यह सब रौद्रध्यान ही है। ये जो मिलावट करते हैं, वह भी रौद्रध्यान ही है। अपने सुख के लिए दूसरे का किंचित् मात्र सुख ले लेना, छीन लेने का विचार करना, रौद्रध्यान है। नियम क्या कहता है? तू पहले से ही पंद्रह या बीस प्रतिशत मुनाफा चढ़ाकर व्यापार करना। इसके उपरांत भी यदि तू कपड़ा खींचकर नापता है, वह गुनाह है। भयंकर गुनाह है। सच्चे जैन को तो रौद्रध्यान होता ही नहीं है। जैसे एक्सीडेन्ट रोज़ नहीं होता, वैसे ही रौद्रध्यान भी कभी कभार भगवान ने कहा है कि जीव मात्र चार प्रकार के ध्यान में ही रहा करते हैं। रौद्रध्यान, आर्तध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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