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________________ आप्तवाणी-१ ३१ आप्तवाणी-१ नाशवंत चीज़ मत माँगना। सदैव रहे ऐसा सुख माँग लेना। परसत्ता के उपयोग करने से चिंता होती है। परदेश की कमाई परदेश में ही रहेगी। ये मोटर, बंगले, मिलें, बीवी-बच्चे सब यहीं छोड़कर जाना हैं। अंतिम स्टेशन पर तो किसी के बाप का भी चलनेवाला नहीं है न? मात्र पुण्य और पाप साथ में ले जाने देंगे। दूसरी सादी भाषा में तुझे समझाऊँ, तो तूने यहाँ जो-जो गुनाह किए होंगे, उनकी धाराएँ साथ जाएँगी। गुनाहों की कमाई यहीं रहेगी और फिर मुकदमा चलेगा। उन धाराओं के आधार पर नई देह प्राप्त करके, फिर से नये सिरे से कमाई करके कर्ज चुकाना होगा। इसलिए, पहले से ही सावधान हो जा न! स्वदेश में (आत्मा में) तो बहुत ही सुख है, पर स्वदेश देखा ही नहीं है न? है। 'मैं ही यह सब चलाता हूँ' ऐसा भीतर रहा करता है, उसके फल स्वरूप चिंता खड़ी होती हैं। भगवान का सच्चा भक्त तो चिंता होने पर भगवान को भी डाँटे कि आप ना कहते हैं, फिर भी मुझे चिंता क्यों होती है? जो भगवान से लड़ता नहीं, वह भगवान का सच्चा भक्त नहीं है। यदि कोई झंझट पैदा हो, तो आपके भीतर के भगवान से लड़ना, झगड़ना। भगवान को भी डाँटे वह सच्चा प्रेम है। आज तो भगवान का सच्चा भक्त मिलना ही मुश्किल है। सभी अपनी-अपनी ताक में लगे हैं। मैं ही करता हूँ, मैं ही करता हूँ' ऐसा किया करते हैं, इसलिए चिंता होती है। नरसिंह महेता क्या कहते हैं। 'हुं कई, हुं करुं ए ज अज्ञानता, शकटनो भार ज्यम श्वान ताणे, सृष्टि मंडाण छे सर्व एणी पेरे, जोगी जोगेश्वरा कोक जाणे।' मैं करता हूँ, मैं करता हूँ' यही अज्ञानता, शकट (बैलगाड़ी) का भार ज्यों श्वान (कुत्ता) ढोए, सृष्टि प्रारंभ हुई सर्व उसी तरह, योगी योगेश्वरा कोई ही जानें।) यह पढ़कर योगी फूले नहीं समाए। मगर भैया, यह तो आत्मयोगी और आत्मयोगेश्वर के लिए कहा गया है। आत्म-योगेश्वर तो हजारों-लाखों वर्षों में एक प्रकट होता है। वह अकेला ही सारे ब्रह्मांड के प्रत्येक परमाणु में घूम आया होता है और ब्रह्मांड में और ब्रह्मांड के बाहर रहकर प्रत्येक परमाणु से अवगत होकर, देखकर बोलता है। वह अकेला ही जानता है कि यह संसार किस ने बनाया. कैसे बना और कैसे चल रहा है? 'हम इस काल के योगेश्वर हैं।' इसलिए तू अपना काम निकाल ले। एक घंटे में तो तेरी सारी की सारी चिंताएँ मैं ले लेता हैं और गारन्टी देता हूँ कि एक भी चिंता हो, तो वकील रखकर मेरे ऊपर कोर्ट में केस चलाना। ऐसे चौदह सौ महात्माओं को हमने चिंतारहित किया है। अरे ! तू माँग, माँगे सो दे सकता हूँ, पर ज़रा सीधा माँगना। ऐसा माँगना कि जो कभी तेरे पास से जाए नहीं। कोई ये हमारे बाल तक हमारे नहीं हुए, तो और क्या होगा हमारा? फिर भी अकर्मी सारा दिन सिर पर हाथ फेरता रहता है। चिंता ही अहंकार है। किसी बच्चे को चिंता क्यों नहीं होती? क्योंकि वह जानता है कि मैं नहीं चलाता। कौन चला रहा है, इसकी उसे परवाह भी नहीं है। और ये सारे चिंता करते हैं, वह भी पड़ोसी को देखकर। पड़ोसी के घर गाड़ी और अपने घर में नहीं! जीवन निर्वाह के लिए कितना चाहिए? तू एक बार निश्चित कर ले कि इतनी इतनी मेरी आवश्यकताएँ है। उदाहरणार्थ, घर में खाना-पीना पर्याप्त होना चाहिए, रहने को घर चाहिए, घर चलाने के लिए पर्याप्त मात्रा में धन चाहिए। फिर उतना तो तुझे मिल ही जाएगा। पर यदि पड़ोसी के बैंक में दस हजार जमा हो, तो तुझे अंदर चुभता रहता है। इससे तो दु:ख पैदा होते हैं। तू खुद ही दुःख को न्यौता देता है। एक जमींदार मेरे पास आया और मुझसे पूछने लगा कि जीवन जीने के लिए कितना चाहिए? मेरी हजार बीघा जमीन है, बंगला है, दो कारें है और बैंक बैलेन्स भी खासा है। इसमें से मुझे कितना रखना चाहिए? मैंने कहा, 'देख भैया प्रत्येक की ज़रूरत कितनी होनी चाहिए
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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