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________________ अहिंसा का प्रकाश इस बांद्रा की खाड़ी में जाएँ, तो उस प्रकाश को गंध छुएगी या नहीं छुएगी? या फिर वह प्रकाश है वह खाड़ी के रंगवाला हो जाता प्रश्नकर्ता : ना। दादाश्री : तब कीचड़वाला हो जाता है? प्रश्नकर्ता : ना। दादाश्री : यह प्रकाश कीचड़ को छूता है, परन्तु कीचड़ उसे छूता नहीं। तो जब मोटर का प्रकाश ऐसा है, तो आत्मा का प्रकाश कैसा होगा! उसे किसी जगह पर लेप ही नहीं चढ़ता। इसलिए आत्मा निरंतर निर्लेप ही होता है, असंग ही रहता है। कुछ छुए ही नहीं, चिपके ही नहीं ऐसा आत्मा है। इसलिए आत्मा तो लाइटस्वरूप है, परन्तु ऐसा लाइट नहीं है वह। वह प्रकाश मैंने देखा हुआ है, वैसा प्रकाश है। ये मोटर की लाइट का प्रकाश तो दीवार से अवरुद्ध हो जाता है। दीवार आई तब वह प्रकाश अवरुद्ध हो जाता है। 'वह' प्रकाश दीवार से अवरुद्ध हो ऐसा नहीं है। सिर्फ यह पुद्गल ही ऐसा है कि जिससे वह अवरुद्ध हो जाता है, दीवार से नहीं रुकता। बीच में पहाड़ हो तब भी अवरुद्ध नहीं होता है। प्रश्नकर्ता : पुद्गल में क्यों अवरोध है? दादाश्री : यह पुद्गल है न, वह अंदर मिश्रचेतन है। यदि जड़ होता न तो अवरोधित नहीं होता। पर यह मिश्रचेतन है इसलिए अवरोध है। प्रश्नकर्ता : यह खाड़ी का और प्रकाश का उदाहरण दिया वह बहुत ही सचोट है। दादाश्री: हाँ, पर वह हम किसी ही दिन देते हैं, नहीं तो नहीं दिया जा सकता। यह उदाहरण सबको नहीं दिया जा सकता। नहीं तो लोक उल्टे रास्ते चढ़ जाएँ। अहिंसा न छुए हिंसा, आत्मस्वरूपी को अब इस रोड़ पर चंद्रमा का उजाला हो, तो वह आगे की लाइट नहीं होती, तो गाड़ी चलाते हैं या नहीं चलाते लोग? प्रश्नकर्ता : चलाते हैं। दादाश्री : तब उसे कोई शंका नहीं पड़ती। परन्तु लाइट हो वहाँ शंका पड़ती है। बाहर लाइट हो तो उस उजाले में उसे दिखता है कि ओहोहो इतने सारे जीवजंतु घूम रहे हैं और गाड़ी के साथ टकरा रहे हैं, वे सब मर जाते हैं। पर वहाँ उसे शंका होती है कि मैंने जीवहिंसा की। ___ हाँ, उन लोगों को लाइट नाम मात्र की भी नहीं है, इसलिए उन्हें जीवजंतु दिखते ही नहीं। इसलिए उन्हें इस बारे में शंका ही नहीं होती। जीव कुचल जाते हैं, ऐसा पता ही नहीं चलता न ! पर जिसे जितना उजाला होता जाता है, उतने जीव दिखते जाते हैं। लाइट जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे लाइट में जीवजंतु दिखते जाते हैं कि जंतु गाड़ी से टकरा जाते हैं और मर जाते हैं। ऐसी जागृति बढ़ती जाएँ वैसे खुद के दोष दिखते जाते हैं, नहीं तो लोगों को तो खुद के दोष दिखते ही नहीं न? आत्मा वह लाइट स्वरूप है, प्रकाश स्वरूप है, उस आत्मा को छूकर किसी जीव को कुछ दुख होता ही नहीं। क्योंकि जीवों के भी आरपार निकल जाए. आत्मा ऐसा है। जीव स्थूल हैं और आत्मा सूक्ष्मतम है। वह आत्मा अहिंसक ही है। यदि उस आत्मा में रहो तो 'आप' अहिंसक ही हो। और यदि देह के मालिक बनोगे तो हिंसक हो। वह आत्मा जानने जैसा है। ऐसा आत्मा जान लिया. फिर उसे किस तरह दोष बैठे? किस तरह हिंसा छुए? इसलिए आत्मस्वरूप होने के बाद कर्म बंधते ही नहीं। प्रश्नकर्ता : फिर जीवहिंसा करे तब भी कर्म नहीं बंधते? दादाश्री : हिंसा होती ही नहीं न! 'आत्मस्वरूप' से हिंसा ही होती नहीं। 'आत्मस्वरूप' 'जो' हुआ, हिंसा उससे होती ही नहीं। इसलिए आत्मज्ञान होने के बाद कोई कानून छूता नहीं है। जब तक
SR No.009573
Book TitleAhimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size36 KB
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