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________________ अहिंसा खुद निर्वेद हो जाएगा।' निर्वेद मतलब क्या? जाननेवाला सिर्फ, कि मच्छर ने यहाँ पर काटा। खुद ने वेदा नहीं, वह निर्वेद! वास्तव में खुद वेदता ही नहीं, परन्तु वेदता है वह पूर्व अभ्यास है। पूर्व का अभ्यास है न, इसलिए वह बोलता है कि इसने मुझे काटा। इसलिए वास्तव में खुद निर्वेद ही है। परन्तु हमें इस सत्संग में बैठ-बैठकर वह पद समझ लेना है, वह पूरा पद समझ लेना है कि आत्मा वास्तव में ऐसा है। इसलिए अभी हमें शुद्धात्मापद से चला लेना है। इतना बोले तब भी उसे कर्म लगने बंद हो गए। उस आरोपित भाव से छूटा यानी कर्म बंधने रुक गए। प्रश्नकर्ता : यह मच्छर ने काटा हो, तब भी 'मैं वेदक नहीं' कहना? दादाश्री : हाँ, यह आप ऐसे बैठे हो और यहाँ हाथ पर मच्छर बैठा। इसलिए 'बैठा' वह आपको पहले अनुभव होता है। वह आपको जानपना होता है। यह मच्छर बैठा, उस घड़ी जानपना होता है या वेदकपना होता है? आपको क्या लगता है? प्रश्नकर्ता : बैठा हो उस समय तो जानपन ही होता है। दादाश्री : हाँ, फिर वह डंक मारता है, उस घड़ी भी जानपना है, परन्तु फिर 'मुझे मच्छर ने काटा, मुझे काटा' कहता है इसलिए वह वेदक बन जाता है। अब वास्तव में खुद निर्वेद है। इसलिए मच्छर डंक मारे उस घड़ी हमें कहना है कि मैं तो निर्वेद हूँ। फिर डंक गहरे जाए, तब हमें फिर कहना है, 'मैं निर्वेद हूँ।' प्रश्नकर्ता : अब आपने निर्वेद की बात करी, परन्तु दूसरे एक शब्द का उपयोग किया है कि स्व-संवेदन होता है। दादाश्री : स्वसंवेदन तो नहीं बोला जा सकता। वह तो बहुत ऊँची वस्तु है। स्वसंवेदन, वह तो अंतिम बात कहलाती है। अभी तो हमें 'मैं निर्वेद हूँ' बोलना है कि जिससे यह वेदना कम हो। मेरा क्या कहना है कि तब भी वेदना एकदम जाती नहीं। और स्वसंवेदन तो 'ज्ञान' ही हुआ कहलाता है। उसे 'जानें' ही! भले ही डंक लगे, जबरदस्त डंक लगे तब अहिंसा भी उसे जाना ही करे, वेदे ही नहीं, वह स्वसंवेदन कहलाता है। प्रश्नकर्ता : पर इस मच्छर ने जो काटा और उसकी जो प्रतिक्रिया हुई कि 'इस मच्छर ने मुझे काटा।' उस प्रतिक्रिया को भी स्वसंवेदन में जानता है? दादाश्री : हाँ, उसे भी जानता है। प्रश्नकर्ता : पर आपने कहा कि, 'मैं वेदता नहीं, वेदता नहीं' कहें तब फिर लोग ऐसा समझते हैं कि वेदना चली गई। दादाश्री : ना, ऐसा नहीं। वेदनता को भी वह जानता है। परन्तु इतना सब मनुष्यो के बस का नहीं है इसलिए 'मैं निर्वेद हूँ' ऐसा बोल न, तो उसका असर नहीं होगा। 'आत्मा' का स्वभाव निर्वेद है। यह बोलें तब 'उसे' कोई असर नहीं होता। पर स्वसंवेदन वह ऊँची वस्तु है। वह यदि जानता जाएगा तो स्वसंवेदन में जाएगा। उसमें तो उसे जानना ही है कि यह डंक लगा। उसे भी जाना। फिर वह डंक चला गया उसे भी जाना। ऐसे करते-करते स्वसंवेदन में जाता है, पर निर्वेद तो एक स्टेप है कि बेचैन हुए बिना उसे सहन कर सके। प्रश्नकर्ता : आत्मा ही स्वसंवेदन से जाना जाता है न? दादाश्री : आत्मा खुद स्वसंवेदन ही है। पर आपने 'यह' ज्ञान लिया है फिर भी पिछले अहंकार और ममता जाते नहीं न, अभी तक! प्रश्नकर्ता : स्वसंवेदनशील है, उसका दर्शन समग्र होता है न? दादाश्री : समग्र होता है। पर वह दशा अभी तो इस काल में नहीं हो सकती वैसी। इसलिए स्वसंवेदन उतना कच्चा रहता है। संपूर्ण स्वसंवेदन हो सकता नहीं इस काल में। समग्र दशा तो केवलज्ञान होता है, तब होती लाइट को कीचड़ रंग सकता है? आपको आत्मा के प्रकाश की खबर नहीं होगी? ये मोटर की लाइट
SR No.009573
Book TitleAhimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size36 KB
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